मंगलवार, 28 अगस्त 2012

टीआरपी व्यवस्था पर फिर खड़े हुए सवाल




इन दिनों एक बार फिर टैम की टीआरपी तय करने की व्यवस्था पर फिर सवाल उठने लगे है। टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वांइट) की व्यवस्था पर मीडिया आलोचक शुरू से ही सवाल उठाते रहे है, लेकिन इस बार टैम पर टीआरपी तय करने में धोखाधड़ी का आरोप एनडीटीवी चैनल ने लगाया है। एनडीटीवी 2004 से 2012 तक की टीआरपी से नाखुश है। इसको लेकर उसने न्यूयॉर्क स्टेट लॉ के तहत निल्सन और कंटर मीडिया कंपनी पर मुकदमा दर्ज कराया है। वहीं, प्रसार भारती भी अब टीआरपी में दूरदर्शन के दर्शकों की अनदेखी को लेकर चिंतित है। ज्ञात हो कि टीआरपी की शुरुआत 1993 में हुई थी।  विज्ञापन को ध्यान में रखते हुए ही टीआरपी नामक व्यवस्था शुरु की गई थी।

     टीआरपी पर ही चैनलों का धंधा टिका हुआ है। टीआरपी के माध्यम से ही तय होता है कि किस चैनल या किस कार्यक्रम को कितने समय तक देखा गया है। जिस चैनल की टीआरपी हाई होगी, उसी को विज्ञापन मिलता है। आज चैनल टीआरपी पाने के लिए खबरों को सनसनीखेज बनाने और हल्का बनाने से भी परहेज नहीं कर रहे है। टीआरपी की इस अंधी दौड़ में चैनल्स पत्रकारिता के एथिक्स को भूलते जा रहे हैं। दूरदर्शन भी इस होड़ में फं सा है, वह भी निजी से अलग कुछ नहीं कर पा रहा है।

      इस व्यवस्था में कई खामियों के बावजूद भी चैनलों का धंधा इसी पर टिका है। तो वहीं आज यह व्यवस्था ही पत्रकारिता की दुश्मन बन गई है, क्योंकि टीआरपी पर टैम का एकाधिकार बना हुआ है। टैम सप्ताह में एक बार टीआरपी तय करता है। टीआरपी तय करने के लिए टैम ने केवल सात हजार मीटर लगाएं है, जिनकी पारदर्शिता पर कई  बार सवाल उठते रहे हैं। किसी घर में दो मीटर लगे हैं, तो किसी में एक भी नहीं। एक अनुमान के मुताबिक 12 करोड़ घरों में टेलीविजन है, इसमें से लगभग 6.2 करोड़ टीवी गांवों में लगे है। इन गांवों को टीआरपी के इस खेल में शामिल नहीं किया जाता है। सिर्फ कुछ प्रमुख महानगरों की टीआरपी को ही देश के लोगोें की पसंद और नापसंद बनाया जाता है। जिसमें पूर्वोत्तर क्षेत्र को भी शामिल नहीं किया गया है।

    प्रसार भारती ने भी 2003-04 में टीआरपी की इस व्यवस्था को सही नहीं बताते हुए टैम से मीटर कोे बढ़ने का अनुरोध किया था, लेकिन इसके लिए टैम ने दूरदर्शन से ही पौने आठ करोड़ की मांग की थी। इसको लेकर दूरदर्शन ने कहा कि टीआरपी व्यवस्था सभी चैनल्स के लिए इसलिए वह अकेले पैसे इसका भार नहीं उठाएगा। वहीं, चैनल के संचालक भी मीटर बढ़ाने के पक्ष में नहीं नजर आ रहे है, क्योंकि इससे उनके हितों की पूर्ति नहीं हो पाएगी। टैम ने मीटर की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने को कहा था, लेकिन आज उन 7000 हजार मीटरों से टीआरपी तय हो रही है।

टैम की इस व्यवस्था को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसमें कितनी खामियां है, तो वहीं पारदर्शिता के अ•ााव में टीआरपी से छेड़छाड़ की सं•ाावना बढ़ जाती है। एनडीटीवी के अधिकारियों से टैम के साथ काम करने वाले कुछ कर्मचारियों ने पैसे खर्च कर मीटर वाले घरों को प्र•ाावित करने की बात कहीं।

 अब देखना यह है कि एनडीटीवी के इस मुकदमे से टीआरपी की व्यवस्था में कुछ बदलाव आएगा या टीआरपी की व्यवस्था पर टैम का ही एकाधिकार रहेगा। फिलहाल तो यहीं उम्मीद की जा सकती है कि इस मामले से टैम का कोई विकल्प निकलकर आए, ताकि टीआरपी सिर्फ विज्ञापनदाताओं को ही न देख बल्कि दर्शक के हितों का भी ध्यान रखा जाए।