रविवार, 21 अक्तूबर 2012

बलात्कार की घटनाओं पर शर्म करें या बयानों पर



हरियाणा में  34 दिनों में 19 बलात्कार की घटनाएं हुई। इन घटनाओं ने एक बार फिर सवाल खड़ा कर दिया है कि महिलाएं या लड़कियां कितनी सुरक्षित है। तो वहीं बलात्कार की घटनाओं पर आए बयानों से महिलाओं को लेकर हमारे समाज की सोच का भी पता चलता है।

कुछ माह पहले दिल्ली में हुई बलात्कार की एक घटना में जब पीड़िता की पुलिस ने पहचान उजागर की थी, तब तहलका ने अपने अप्रैल के अंक में बलात्कार के मामले में 30 पुलिसकर्मियों बात-चीत की, जिसमें से 17 पुलिसकर्मियों ने महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह और बलात्कार की शिकार लड़कियों के प्रति असंवदेनशीलता दिखाई। उस तहकीकत से एक बात ओर सामने आई थी कि लड़की को हमेशा ही दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है।

 नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पिछले सात साल में हरियाणा में बलात्कार की वारदातें दोगुनी  हुई हैं। 2004 में 386 बलात्कार दर्ज करने वाले राज्य में 2011 में बलात्कार की 733 घटनाएं सामने आई है।

अब जब हरियाणा में बलात्कार की घटनाएं थम नहीं रही है। इन घटनाओं पर आए बयानों पर गौर करें। सोनिया गांधी ने कहा कि रेप तो पूरे देश में हो रहे हैं। तो वहीं कांगेस नेता धर्मवीर गोयत ने बलात्कार के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया है। दूसरी ओर खाप पंचायतें रेप की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए लड़कियों की शादी की उम्र को 18 से 16 साल करने की सलाह दे रही है, तो एक खाप नेता जितेंद्र छत्तर सिनेमा, संस्कृति और फास्टफूड को जिम्मेदार ठहरा रहे है। इन बयानों में कहीं भी सही मायने बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए कोई अहम कदम उठाने की बात नहीं की गई है। जो खाप पंचायतं स्वयं को गांव और परंपरा का रखवाला बताती है या फिर वह नेता जिन्हें जनता चुनकर भेजती है, वह ऐसे बयान देंगे तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती हैं। इन बयानों में लड़की को ही दोषी ठहराया गया है। इसे सिर्फ पितृसत्तात्मक और सामंतवादी सोच का पता चलता है।

एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि लड़कियां भड़काऊ कपड़े पहनती है और मेकअप करती है, जिससे उनके साथ रेप होता है। ऐसे बेतुके तर्क देने के बजाए हमें मानसिकता को बदलना चाहिए। हम आधुनिक तो बन गए, लेकिन हम आज भी अपनी सोच को आधुनिक नहीं बना पाए।

 कैबिनेट ने जहां महिलाओं को अश्लील एसएमएस, एमएमएस और ई-मेल भेजने वाले कानून में संशोधन करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। इसके तहत ऐसा करने वालों को पहली बार दो साल की कैद और 50 हजार का जुर्माना, दोबारा ऐसा करने वालों को सात साल सजा और एक से पांच लाख तक के जुर्माने की व्यवस्था की है। इसे भले ही महिलाओं को कुछ राहत मिले, लेकिन नेताओं के बलात्कार की घटनाओं पर आए बयानों से तो महिलाओं में असुरक्षा की भावना ही पैदा होगी। नेताओं को ऐसी बयानबाजी के बजाए बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। कानूनों को अमल में लाया जाना चाहिए। हमारे पुलिस तंत्र को भी इन घटनाओं में संवेदनशीलता दिखाने की आवश्यकता है।

सोमवार, 24 सितंबर 2012

हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता और हिन्दी का गिरता स्तर




एक बार फिर हिन्दी दिवस पर सैकड़ों आयोजन हुए। जिनमें हिन्दी के बढ़ते महत्व पर व्याख्यान दिए गए, तो कहीं हिन्दी की गिरावट पर चर्चा हुई। इसके बाद हम फिर पूरे साल हिन्दी की उपेक्षा करने लगेंगे ।

    हम अपनी भाषा की उपेक्षा क्यों करने लग जाते हैं, जबकि पश्चिमी देशों में हिन्दी पढ़ाए जाने पर हमें गर्व होता है। यह हिन्दी के लिए अच्छा है कि आज दुनिया के करीब 115 शिक्षण संस्थानों में  हिन्दी का अध्ययन हो रहा है। अमेरिका, जर्मनी में भी हिन्दी को पढ़ाया जा रहा है। हमें अन्य देशों से सिखना चाहिए कि कैसे वह अपनी भाषा के साथ ही अन्य भाषा को भी अपनाने की कोशिश करते हैं।
     एक ओर हिन्दी लोकप्रिय हो रही है, लेकिन वहीं हिन्दी का स्तर भी गिरता जा रहा है। हम हिन्दी की स्थिति को जानने के लिए अखबारों, न्यूज चैनलों का सहारा लेते हैं। आज हिन्दी अखबारों के भले ही करोड़ो पाठक है। जिससे यह कहा जाता है कि हिन्दी फल-फूल रही है, जबकि हिन्दी की स्थिति अच्छी नहीं है, क्योंकि आज अखबारों में हिंग्लिश शब्दों का प्रचलन बढ़ रहा है। वहीं हिन्दी अखबारों में से आज आई-नेक्सट जैसे समाचार पत्र भी निकल कर रहे हैं। जो न तो पूरी तरह से  हिन्दी और न ही पूरी तरह से अंग्रेजी है, जिसे युवा वर्ग काफी पसंद कर रहा है। हिन्दी अखबारों में कुछ अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हो तो अच्छा है, लेकिन जब  हिन्दी के आसान शब्दों के स्थान पर भी अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाए, तो स्थिति चिंताजनक हो जाती है।
     यह भी कहा जाता है कि लोग मीडिया से अपनी भाषा बनाते हैं। ऐसे में जब हिन्दी के ही बड़े अखबार हिन्दी के एक ही शब्द को अलग-अलग तरीके से लिख रहे हो- जैसे- कोई अखबार सीबीआई को सीबीआइ, बैलेस्टिक को बलिस्टिक, टॉवर को टावर, कॉलोनी को कोलोनी लिख रहे हैं। ऐसे में जब पाठक मीडिया से अपनी भाषा तय करता है, तो पाठक सही गलत के फेर में उलझ जाता है। इन शब्दों को आज चाहे स्टाइल शीट के बहाने प्रयोग किया जा रहा है या फिर हिन्दी की मानक के शब्दों को भुलाने की कोशिश हो रही है।
     हिन्दी सिनेमा ने जहां हिन्दी के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है। सिनेमा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हिन्दी को लोकप्रियता दिलाई है, लेकिन आज हिन्दी सिनेमा भी अंग्रेजी की गिरफ्त में आ गया है। आज हमारी फिल्म तो  हिन्दी है, लेकिन नाम अंग्रेजी है- जैसे वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई, गैंग्स आॅफ वासेपुर, देल्ही बेली, नॉटी एट फोर्टी है। ऐसे में क्या कहा जाए कि अब  हिन्दी मीडिया की तरह हिन्दी सिनेमा में भी अंग्रेजी शब्दों या हिंग्लिश भाषा का चलन बढ़ रहा है। इसके बाद कहीं हिन्दी के बजाए हिंग्लिश भाषा में फिल्में तो नहीं आने लगेंगी।
     अब बात करें स्कूली शिक्षा की तो इस बार यूपी बोर्ड में हिन्दी में सवा तीन लाख बच्चे फेल हो जाते हैं। यह चिंतनीय विषय है, क्योंकि इन बच्चों से ही  हिन्दी का भविष्य तय होगा। हिंदी में इतने बच्चों के फेल होने पर मीडिया में इस पर कोई खास चर्चा नहीं हुई।

   हिन्दी के गिरते स्तर को सुधारने की जरुरत है। हम जिस तरह अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर देते हैं, उसी तरह हमें अपने बच्चों को  हिन्दी पढ़ाने पर भी जोर देना चाहिए। सरकार द्वारा भी प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के तौर हिन्दी को बनाए रखना चाहिए। हमारे मीडिया को चाहिए कि वह भी हिन्दी की लोकप्रियता के साथ ही उसके स्तर पर भी ध्यान दें, वरना आने वाले समय आई-नेक्सट जैसे अखबारों की भरमार होगी।


बुधवार, 19 सितंबर 2012

न्यूड फोटोशूट: अश्लीलता या आजादी


 
पिछले कुछ समय से न्यूड होने का दौर चल पड़ा है। दिसंबर 2011 में वीना मलिक ने एफएचएम(FHM) पत्रिका के लिए न्यूड फोटोशूट करवाया। फिर कोलकाता नाइट राइडर्स के खिताब जीतने पर पूनम पांडे न्यूड हुई, तो वहीं शर्लिन चोपड़ा इंटरनेशनल एडल्ट मैगजीन प्लेब्वॉय के लिए न्यूड पोज देने वाली पहली भारतीय महिला बनी। इसके बाद शमिता शर्मा और अब टीवी एक्ट्रेस भी न्यूड होने से परहेज नहीं कर रही है। इन न्यूड फोटोशूट के बहाने अश्लीलता परोसी जा रही है। इसके लिए मीडिया भी अहम भूमिका निभाने से परहेज नहीं कर रहा है।

   शर्लिन चोपड़ा जिन्हें न्यूड होने पर गर्व  है। उनका मानना है कि मैगजीन के  लिए कपड़े उतारना खुद को रूढ़िवादी परंपरा से आजाद करने से कम नहीं हैं। इसे अब क्या यह मान लिया जाए कि महिलाओं को आजादी मिल गई है या फिर आजादी के नाम पर अश्लीलता परोसने का बहाना मात्र है। आज भी महिलाओं को जहां उनके अधिकार नहीं मिल सके है, तो वहीं कुछ महिलाएं न्यूड फोटोशूट करवाकर दैहिक स्वतंत्रता को मात्र देह में बदलना चाहती है। पहले विज्ञापन ने महिला को मात्र देह में बदलने की कोशिश की और अब न्यूड  फोटोशूटों के जरिए भी वहीं हो रहा।


 फिल्मों की अश्लीलता रोकने के लिए सेंसर बोर्ड ने निर्णय लिया है कि वह जिस फिल्म को एडल्ट सर्टिफिकेट देगा, उनका अब किसी तरह टीवी पर प्रदर्शन लगभग असंभव हो जाएगा। इस अश्लीलता पर तो सेंसर बोर्ड रोक लगने की कोशिश कर रहा है, लेकिन न्यूड फोटोशूट के जरिए जो अश्लीलता हमारा मीडिया खबरों के माध्यम से परोस रहा है उसका क्या। मीडिया न्यूड फोटोशूट की खबरों को बड़ी प्रमुखता से पेश कर रहा है। इन फोटोशूट से जहां हमारी संस्कृति प्रभावित हो रही है, वहीं महिलाओं की आजादी का दायरा सीमित होने का खतरा भी हैं।


 अब हमें समझना होगा कि ये फोटोशूट सिर्फ कुछ मॉडलों के लिए मात्र नाम और पैसा कमाने का जरिए हैं, न कि महिलाओं की आजादी।  ऐसे में मीडिया को भी इन फोटोशूटों को ज्यादा तवज्जों नहीं देनी चाहिए, जिससे सस्ती लोकप्रियता की भूखी मॉडलों को भी बढ़ावा न मिलें।  



मंगलवार, 28 अगस्त 2012

टीआरपी व्यवस्था पर फिर खड़े हुए सवाल




इन दिनों एक बार फिर टैम की टीआरपी तय करने की व्यवस्था पर फिर सवाल उठने लगे है। टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वांइट) की व्यवस्था पर मीडिया आलोचक शुरू से ही सवाल उठाते रहे है, लेकिन इस बार टैम पर टीआरपी तय करने में धोखाधड़ी का आरोप एनडीटीवी चैनल ने लगाया है। एनडीटीवी 2004 से 2012 तक की टीआरपी से नाखुश है। इसको लेकर उसने न्यूयॉर्क स्टेट लॉ के तहत निल्सन और कंटर मीडिया कंपनी पर मुकदमा दर्ज कराया है। वहीं, प्रसार भारती भी अब टीआरपी में दूरदर्शन के दर्शकों की अनदेखी को लेकर चिंतित है। ज्ञात हो कि टीआरपी की शुरुआत 1993 में हुई थी।  विज्ञापन को ध्यान में रखते हुए ही टीआरपी नामक व्यवस्था शुरु की गई थी।

     टीआरपी पर ही चैनलों का धंधा टिका हुआ है। टीआरपी के माध्यम से ही तय होता है कि किस चैनल या किस कार्यक्रम को कितने समय तक देखा गया है। जिस चैनल की टीआरपी हाई होगी, उसी को विज्ञापन मिलता है। आज चैनल टीआरपी पाने के लिए खबरों को सनसनीखेज बनाने और हल्का बनाने से भी परहेज नहीं कर रहे है। टीआरपी की इस अंधी दौड़ में चैनल्स पत्रकारिता के एथिक्स को भूलते जा रहे हैं। दूरदर्शन भी इस होड़ में फं सा है, वह भी निजी से अलग कुछ नहीं कर पा रहा है।

      इस व्यवस्था में कई खामियों के बावजूद भी चैनलों का धंधा इसी पर टिका है। तो वहीं आज यह व्यवस्था ही पत्रकारिता की दुश्मन बन गई है, क्योंकि टीआरपी पर टैम का एकाधिकार बना हुआ है। टैम सप्ताह में एक बार टीआरपी तय करता है। टीआरपी तय करने के लिए टैम ने केवल सात हजार मीटर लगाएं है, जिनकी पारदर्शिता पर कई  बार सवाल उठते रहे हैं। किसी घर में दो मीटर लगे हैं, तो किसी में एक भी नहीं। एक अनुमान के मुताबिक 12 करोड़ घरों में टेलीविजन है, इसमें से लगभग 6.2 करोड़ टीवी गांवों में लगे है। इन गांवों को टीआरपी के इस खेल में शामिल नहीं किया जाता है। सिर्फ कुछ प्रमुख महानगरों की टीआरपी को ही देश के लोगोें की पसंद और नापसंद बनाया जाता है। जिसमें पूर्वोत्तर क्षेत्र को भी शामिल नहीं किया गया है।

    प्रसार भारती ने भी 2003-04 में टीआरपी की इस व्यवस्था को सही नहीं बताते हुए टैम से मीटर कोे बढ़ने का अनुरोध किया था, लेकिन इसके लिए टैम ने दूरदर्शन से ही पौने आठ करोड़ की मांग की थी। इसको लेकर दूरदर्शन ने कहा कि टीआरपी व्यवस्था सभी चैनल्स के लिए इसलिए वह अकेले पैसे इसका भार नहीं उठाएगा। वहीं, चैनल के संचालक भी मीटर बढ़ाने के पक्ष में नहीं नजर आ रहे है, क्योंकि इससे उनके हितों की पूर्ति नहीं हो पाएगी। टैम ने मीटर की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने को कहा था, लेकिन आज उन 7000 हजार मीटरों से टीआरपी तय हो रही है।

टैम की इस व्यवस्था को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसमें कितनी खामियां है, तो वहीं पारदर्शिता के अ•ााव में टीआरपी से छेड़छाड़ की सं•ाावना बढ़ जाती है। एनडीटीवी के अधिकारियों से टैम के साथ काम करने वाले कुछ कर्मचारियों ने पैसे खर्च कर मीटर वाले घरों को प्र•ाावित करने की बात कहीं।

 अब देखना यह है कि एनडीटीवी के इस मुकदमे से टीआरपी की व्यवस्था में कुछ बदलाव आएगा या टीआरपी की व्यवस्था पर टैम का ही एकाधिकार रहेगा। फिलहाल तो यहीं उम्मीद की जा सकती है कि इस मामले से टैम का कोई विकल्प निकलकर आए, ताकि टीआरपी सिर्फ विज्ञापनदाताओं को ही न देख बल्कि दर्शक के हितों का भी ध्यान रखा जाए।


शनिवार, 14 जुलाई 2012

क्यों लोग लगा रहे हैं मौत को गले


              
    राष्ट्रीय अपराध रिकॉडर््स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों और द लैंसेट में छपी रिपोर्ट के मुताबिक  वर्ष 2011 में भारत में 1 लाख 35 हजार से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की।  भारत में हर घंटे औसतन 16 लोगों ने मौत को गले लगाया है, जबकि  2010 में आत्महत्या करने वालों की संख्या 1 लाख 34 हजार से ज्यादा थी। साल दर साल आत्महत्या करने वाले लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है।

    इस रिपोर्ट के अनुसार परिवहन हादसों के बाद आत्महत्या लोगों में मौत का दूसरा बड़ा कारण है।  मौत को गले लगाने में सबसे ज्यादा 15 से 29 वर्ष के युवा है। भारत में 48 हजार से ज्यादा युवाओं ने आत्महत्या की, तो वहीं आत्महत्या करने वाले पांच लोगों में एक गृहिणी है।

    कुछ समय से कहा जा रहा है कि आने वाले कुछ सालों में भारत सबसे ज्यादा युवाओं वाला देश होगा , लेकिन युवा ऐसे ही मौत को गले लगाते रहे, भारत के युवा देश होने का सपना टूट जाएगा।

    अगर आत्महत्या के कारणों पर सोचा जाए तो इसका मुख्य कारण आज की बदलती जीवन शैली और अकेले रहने की प्रवृत्ति को कहा जा सकता है। अकेले रहने की प्रवृत्ति से लोग तनावग्रस्त और अवसाद का शिकार हो रहे है और मौत को गले लगा रहे है। वहीं, आज के युवाओं की जो महत्वकांक्षाएं  है, उन्हें पूरा करने के लिए उनके पास अवसर नहीं है , जिससे वह  जिंदगी से हताश हो रहे है।

    एक अन्य कारण पारिवारिक समस्याएं भी है। जिस तरह आज हमारे परिवार टूट रहे, कलह बढ़ रहा, इससे भी लोग आत्महत्या करने को विवश हो रहे है।

   आत्महत्या के इन आंकड़ों पर गौर करने की जरुरत है, ताकि इन आंकड़ों में बढ़ोतरी न हो और हमारे देश के युवा आत्महत्या करने से बचे, वरना युवाओं के देश और आर्थिक महाशक्ति का सपना कहीं टूट न जाएं।

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

कैसी जल नीति



राष्ट्रीय जल नीति ड्राफ्ट 2012 में सरकार जल का निजीकरण करने और जल को आर्थिक वस्तु बनाने पर तुली है। जल के रख-रखाव और वितरण के लिए सार्वजनिक निजी साझेदारी (पीपीपी मॉडल) को अपनाने की योजना बनाई गई है।
     जल एक प्राकृतिक संसाधन है। जिस पर हर वर्ग का अधिकार है, लेकिन अब यह प्राकृतिक संसाधन कुछ प्रभावशाली लोगों और निजी कंपनी तक ही सिमट जाएगा। पिछले एक दशक से जिस तरह पानी माफिया बढ़ रहा है और मुनाफा कमा रहा है। नई जल नीति से पानी माफियों को और बढ़ावा मिलेगा।
     नई नीति में जल से अधिकतम लाभ कमाने का उद्देश्य रखा गया है और इसमें बिजली और पानी दोनों को महंगा करने को भी कहा गया हैै, ताकि इनका दुरुपयोग कम हो सकें। इस नीति के तहत सरकार की भूमिका केवल नियमन तक सीमित रहेगी। वहीं, एक स्वायत्त इकाई का गठन भी किया जाएगा, जो जल कंपनी के लिए लागत और उचित लाभ मुक्त मूल्य निर्धारित करेगी। यह स्वायत्त इकाई जनदबाव और सरकारी नियंत्रण से मुक्त होगी।
      इन प्रावधानों को देखकर कहा जा सकता है कि सरकार अब जल को मुनाफे की वस्तु के तौर पर देख रही है, जो सही नहीं है। जल के निजीकरण के पीछे सरकार का तर्क है कि जैसे बिजली की हालत में सुधार आया है और बिजली का दुरुपयोग कम हुआ है। वैसे ही अब जल की हालत में भी सुधार आयेगा। क्या सिर्फ जल के निजीकरण और कीमतों को बढ़ाकर ही पानी के दुरुपयोग को रोका जा सकता है। जबकि हकीकत तो यह है कि जो प्रभावशाली तबका है, वहीं जल का दुरुपयोग कर रहा है और वह कीमतें बढ़ने के भी जल की कीमत को नहीं समझेगा। क्योंकि जो दूसरा तबका है, उसे इतना जल मुहैया ही नहीं हो पा रहा है कि वह जल का दुरुपयोग कर पाए। ऐसे में जब जल की कीमतें और बढ़ जाएंगी, तो उसे जल से पूरी तरह वंचित होना पड़ेगा, जोकि मानवाधिकारों का हनन है। जल को हर तबके को उपलब्ध करना सरकार का दायित्व है। जल को केवल वस्तु नहीं माना जा सकता, यह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है।
     वहीं, जब स्वायत्त इकाई जनदबाव और सरकारी नियंत्रण से मुक्त रहेगी, तो मनमर्जी से कीमतों में बढ़ोतरी की जाएगी जैसे आज बिजली के क्षेत्र में हो रहा है, एक तरफ बिजली कंपनियां घाटा दिखती है, जबकि उन्हें मुनाफा हो रहा है।
    इस ड्राफ्ट के बाद अभी हाल ही में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि एक से डेढ़ साल में निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। तो वहीं पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर मालवीय नगर, वसंत विहार और नरेला में मीटर रीडिंग व बिलिंग का काम पहले ही निजी हाथों में सौंपा जा चुका हैं। यानि जल निजीकरण की प्रक्रिया को अंजाम देने की पूरी तैयारियां कर ली गई है।
    जल के निजीकरण से असमानता बढ़ेगी और जल गरीब तबके की पहुंच से दूर हो जाएगा। अब जल का उपयोग वहीं कर पायेगा, जो उसकी कीमत चुका पायेगा और जल के निजीकरण की मार सबसे ज्यादा उस किसान पर पड़ेगी, जो पहले ही फसल की लागत भी नहीं निकाल पाता है। अब उस किसान के लिए खेती और महंगी होगी।

मंगलवार, 26 जून 2012

आखिर कब मिलेगा बेटियों को जीने का अधिकार

अल्टरनेटिव इकॉनोमिक सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक हर साल देश में छह लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पाती है। वहीं बालक-बालिका का अनुपात (सीएसआर) 2001 के 927 के मुकाबले घटकर प्रति 1,000 बालक की तुलना में 914 पर आ गया है। बाल लिंगानुपात 2011 में 2001 के मुकाबले 13 अंकों की और गिरावट आई है। लिंगानुपात बेहतर नहीं हो पा रहा है। दिल्ली, हरियाण, चंडीगढ़ जैसे राज्यों में लिंगानुपात में गिरावट ज्यादा है, जबकि झारखण्ड, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्यों में लिंगानुपात बेहतर है। लिंगानुपात में भले ही कुछ राज्यों में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन इस सुधार को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। लिंगानुपात में गिरावट का सबसे अहम कारण भ्रूण हत्या है। 1970 के आसपास देश में सरकारी अस्पतालों में भ्रूण परीक्षण की सुविधा शुरू की गई, जिसका उद्देश्य ऐसे भ्रूण को पहचान करना था, जिसे गंभीर बीमारियां हों और उन्हें जन्म से पहले ही मार दिया जाए। इसके बाद इस प्रक्रिया का प्रयोग लिंग परीक्षण में भी होने लगा। वहीं, 90 के दशक के बाद अल्ट्रासाउंड तकनीक के आने से इसमें और तेजी आ गई और कुकरमुत्ते की तरह गली-गली में अल्ट्रासाउंड के सेंटर खुल गए। इन सेंटरों के खिलाफ कानून होने के बाद भी इन सेंटरों पर कार्रवाई नहीं हो पा रही है, जिससे आज भी धड़ल्ले से नए सेंटर खुल रहे है। इस कारण भी कन्या भ्रूण हत्या में कमी नहीं आ रही है। इसी तरह लिंगानुपात का एक कारण हमारे समाज की मानसिकता भी है। आज हम आधुनिक और सभ्य हो गए, लेकिन हमारी मानसिकता आधुनिक नहीं हुई और आज भी हम अपनी बेटियों को मार रहे हैं। जिससे लड़कियों की तादाद कम होती जा रही है। 1914 में जहां भारत में 1000 हजार लड़कियां थी, वहीं आज सिर्फ 914 लड़कियां रह गई है। 2011 में पीसीपीएनडीटी कानून में संशोधन किया गया, जिसके तहत अपंजीकृत सेंटर चलाने वालों पर 3 वर्ष से 5 वर्ष तक कारावास और 10 हजार से 50 हजार रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है। पंजीकृृत सेंटरों की संख्या 41,228 है, जबकि हकीकत में इन सेंटरों की तादाद लाखों में है। कानून में संशोधन के बाद भी स्थिति में कुछ खास बदलाव नजर नहीं आता है। आज भी कभी किसी गांव, तो कभी किसी शहर से कन्या भ्रूण हत्या खबर मिल ही जाती है। वहीं केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों द्वारा लाडली योजना, लक्ष्मी योजना, बेटी बचाने वाले को एक लाख का इनाम जैसी कितनी योजनाएं चलाई जा रही हैं। दूसरी ओर, सामाजिक संगठनों की काफी कोशिशों के बावजूद भी कन्या भ्रूण हत्या खत्म नहीं हो रही है। भ्रूण हत्या रोकने और लिंगानुपात को बेहतर करने के लिए जरूरी है कि हम बेटियों को उनका जीने का अधिकार दें और अपनी मानसिकता को भी बदले, ताकि बेटे और बेटी का फर्क खत्म हो सके। इसके साथ ही पीसीपीएनडीटी कानून के तहत अल्ट्रासाउंड सेंटरों पर सख्त कार्रवाई की जाए। सरकार को योजनाओं के साथ ही सामाजिक अभियानों पर भी जोर देना चाहिए।

शुक्रवार, 15 जून 2012

दसवीं बोर्ड का रिजल्ट रिकॉर्ड फिर भी हिंदी हुई फेल

अभी हाल ही में यूपी बोर्ड दसवीं का रिजल्ट आया, जिसमें 83.75 फीसद छात्र पास हुए। जो एक रिकॉर्ड बताया जा रहा है। वहीं इस बार हिंदी में सवा तीन लाख छात्र फेल हुए है। इस बार दसवीं की परीक्षा में कुल 35 लाख 59 हजार छात्रों ने भाग लिया था। हिंदी में इतने छात्रों का फेल होना यह साबित करता है कि हम चाहे हिंदी का कितना भी गुणगान कर लें, लेकिन सच यह है कि आज हम बच्चों को अंग्रेजी सीखने के चक्कर में हिंदी की उपेक्षा करते जा रहे है। आज हम चाहते है कि हमारा बच्चा पहली कक्षा से अंग्रेजी बोले। इस होड़ से हिंदी भाषा से कहीं न कहीं बच्चे दूर होते जा रहे है। वहीं आज स्कूलों में भी हिंदी पर इतना जोर नहीं दिया जा रहा है। दूसरी ओर हम बच्चों को अंग्रेजी सीखने के लिए ट्यूशन से लेकर कोंचिग तक करवाते है, लेकिन हिंदी पर इतना जोर क्यों नहीं दिया जाता है। आज अंग्रेजी के बिना कैरियर नहीं है। इस कारण अंग्रेजी की जरूरत को नकार नहीं जा सकता, लेकिन किसी भाषा की उपेक्षा कर दूसरी भाषा को सीखना भी कितना सही है। अंग्रेजी सीखने से हम आधुनिक हो जाते है, लेकिन अंग्रेजी नहीं आती तब हम पिछड़े माने जाते है। आज अंग्रेजी को हमने ऐसी भाषा बन दिया है कि अंग्रेजी के सिवा कोई भाषा ही नहीं रह गई है। वहीं समय-समय पर हिंदी को लेकर बहस चलती रहती है। तो कभी आईआरएस की सर्वे में टॉप टेन में हिंदी के अखबारों के नाम आने से हिंदी की स्थिति को तय किया जाता है। भले हिंदी के अखबार पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी हो, लेकिन हम किस हिंदी अखबारों की बात कर रहे है, जो आज हिंग्लिश भाषा को बढ़ावा दे रहे है। इन अखबारों के सर्वे से हिंदी की स्थिति को तय नहीं किया जा सकता, इन सर्वे से केवल मार्केट को तय किया जा सकता है। हम समझ सकते है कि दसवीं में हिंदी में सवा तीन लाख बच्चे फेल हो जाते है। यह चिंतनीय विषय है , क्योंकि इन बच्चों से ही भविष्य में हिंदी की स्थिति तय होगी। जब इतने बच्चे फेल होंगे, तो भविष्य में हिंदी को लेकर चिंता होना वाजिब है।

गुरुवार, 3 मई 2012

निर्मल बाबा और टीआरपी का खेल

पिछले दो-ढाई महीनों से हिंदी न्यूज चैनलों पर एक बाबा काफी दिखाई दे रहे थे। इन बाबा का नाम निर्मलजीत सिंह नरूला है, लेकिन न्यूज चैनलों ने इन्हें निर्मल बाबा बना दिया। खैर , निर्मल बाबा का खुलासा तो हो गया। निर्मल बाबा और टीआरपी को लेकर मीडिया स्टडीज ग्रुप ने एक अध्ययन किया। इसमें बताया गया है कि निर्मल बाबा को सबसे पहले कमाई का जरिया न्यूज 24 ने बनाया। इसके बाद धीरे-धीरे सभी न्यूज चैनल निर्मल बाबा को दिखाने की होड़ में शामिल हो गए। इन न्यूज चैनलों में थर्ड आई आॅफ निर्मल बाबा के प्रायोजित कार्यक्रम चलाने के पीछे मची होड़ का मकसद टीआरपी हासिल करना रहा है। इस प्रायोजित कार्यक्रम ने टीआरपी के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। अण्णा आंदोलन के लाइव कवरेज को 37.5 रिकॉर्ड टीआरपी मिली, लेकिन निर्मल बाबा के कार्यक्रम की टीआरपी 40 के आस-पास पहुंच गई। वहीं रिपोर्टों के मुताबिक निर्मल बाबा का कार्यक्रम चैनलों के टॉप 50 कार्यक्रमों में ऊपर से नीचे तक छाया रहा। तो न्यूज 24 का निर्मल बाबा कार्यक्रम 13वें हफ्तें टॉप पर रहा।हालांकि कुछ न्यूज चैनल इस कार्यक्रम के खिलाफ भी थे। उनकी टीआरपी में लगातार गिरावट देखी गई। टीआरपी की होड़ से पत्रकारिता के मानकों में भी गिरावट आई। इन सब के लिए टीआरपी की होड़ में शामिल न्यूज चैनलों के साथ टैम मीडिया रिसर्च भी बराबर का दोषी है। टैम मीडिया रिसर्च वह संस्था है जो हर सप्ताह टीआरपी के आंकडे जारी करती है । टीआरपी नामक व्यवस्था की शुरूआत 1993 में हुई। विज्ञापनों के लिए टीआरपी की प्रक्रिया शुरू हुई। टैम मीडिया रिसर्च न्यूज चैनलों के कार्यक्रमों की लोकप्रियता के आधार पर टीआरपी तय करता है। टीआरपी के लिए बड़े शहरों में 8,000 से अधिक टीआरपी मीटर लगाए गए है। टीआरपी से ही चैनलों की रैकिंग तय होती है। रैकिंग के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलते है। टीआरपी हासिल करने के मकसद से ही निर्मल बाबा को दिखना शुरू किया गया। यह प्रायोजित कार्यक्रम जनवरी अंत से मार्च अंत तक सुबह से लेकर रात तक चलता रहा। प्रायोजित कार्यक्रम विज्ञापन होते है। लेकिन न्यूज चैनलों ने इस कार्यक्रम को प्रायोजित कार्यक्रम बताने की जहमत तक नहीं उठाई, जो कि कंटेट गाइड लाइन का उल्लंघन है। निर्मल बाबा के कार्यक्रम पर सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय और एनबीए (न्यूज ब्रार्डक्रास्टर्स एसोसिएशन) जैसी संस्थाओं ने भी कोई आपत्ति नही जताई, न ही चैनलों को अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाली सामग्री प्रसारित करने से रोका। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया के लिए गाइड लाइन बनाने पर अपनी गंभीर टिप्पणी दी हैं। अब न्यूज चैनलों पर जब निर्मल बाबा का खुलासा होने लगा तो इंडिया टीवी ने स्टिंग आॅपरेशन करके बाबा की पोल-खोली तो उसकी टीआरपी 4.7 बढ़त के साथ टॉप पर पहुंच गई। इस बार खेल उलटा पड़ गया खुलासे को दिखाने वाले चैनलों की टीआरपी बढ़ गई और प्रायोजित कार्यक्रमों को दिखाने वाले चैनलों की टीआरपी में गिरावट आई। अक्सर न्यूज चैनलों को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि हम वहीं दिखाते है, जो जनता देखना चाहती है। अब निर्मल बाबा के प्रायोजित कार्यक्रम से लेकर खुलासे तक की टीआरपी को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि जनता केवल निर्मल बाबा को ही नहीं देखना चाहती, बल्कि इन बाबाओं के खुलासे भी देखना चाहते है।

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

नई दुनिया बनाम नेशनल दुनिया

नई दुनिया को दैनिक जागरण ग्रुप ने खरीद लिया तो वही आलोक मेहता ने भी नई दुनिया के कलेवर में नेशनल दुनिया का प्रकाशन शुरू किया है . नई दुनिया के संपादक श्रवण गर्ग है. अब देखना यह है कि जिस नई दुनिया अख़बार को राहुल बारपुते , राजेन्द्र माथुर जैसे लोगो ने नई दुनिया बनाया था. जिसके संपादक आलोक मेहता भी रहे है. जिस तरह की पत्रकारिता नई दुनिया अख़बार ने की . अब नेशनल दुनिया या बिके हुए नई दुनिया से वैसी पत्रकारिता की उम्मीद की जा सकती है. दैनिक जागरण का नई दुनिया या आलोक मेहता का नेशनल दुनिया नई दुनिया अख़बार की जगह ले पाएंगे. आलोक मेहता ने जिस तरह नई दुनिया की तर्ज़ पर नेशनल दुनिया की शुरुआत की है. भले ही उसका कलेवर नई दुनिया जैसा हो , लेकिन पत्रकारिता की तर्ज़ पर भी नेशनल दुनिया नई दुनिया के जैसा होगा . दैनिक जागरण का नई दुनिया भी क्या बिके हुए नई दुनिया की लीक वाली पत्रकारिता कर पाएंगा.

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

फैसले के बाद मिलेगी शिक्षा

शिक्षा अधिकार के तहत निजी स्कूलों में 25 फीसदी बच्चो के आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया . इस फैसले के बाद भी क्या उन बच्चो को शिक्षा मिल पायेगी जो इस शिक्षा के हक़दार है. 3 साल पहले लागू हुए शिक्षा अधिकार के बाद भी आज हमे चाय की दुकानों से लेकर घरो में बाल मजदूरी करते बच्चे मिल जाते है. इसके अलावा काफी बच्चे कई दुर्लभ धंधो में भी लगे हुये है. इन बच्चो को शिक्षा का अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन अभी इन बच्चो को शिक्षा नहीं मिल पाई है. इसके साथ ही इन बच्चो का बचपन भी छिन रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हो सकता है कि इन बच्चो को निजी स्कूल में शिक्षा मिल जाये. लेकिन इसके साथ हमे यह भी देखना होगा कि जब सरकारी स्कूल में इन बच्चो को अभी तक शिक्षा नहीं मिल पाई है. तो क्या निजी स्कूल में इन बच्चो को शिक्षा मिल पायेगी ..सरकारी स्कूल की दशा किसी से छिपी नहीं है. आज कोई परिवार अपने बच्चो को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजना चाहता है . हम केवल निजी स्कूल पर निर्भर नहीं रह सकते है. इसके साथ हमे सरकारी स्कूल की दशा को बदलना होगा और निजी स्कूलों में 25 फीसदी बच्चो के पढने की व्यवस्था को भी दुरुस्त करना होगा. इसके बाद हो सकता है कि शिक्षा की व्यवस्था में कुछ सुधार हो और बाल मजदूरी भी कम हो जाये .

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

रिश्तों में अकेलापन

आज की भागदौड़ भरी जिदंगी के कारण रिश्ते और दोस्त कहीं पीछे छूटते जा रहे है। इस कारण आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवार बढ़ रहे हैं। खासकर शहरों में एकल परिवार की परम्परा काफी तेजी से बढ़ रही है। वहीं इससे अकेले रहने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है।
जबकि पिछले साल इस अकेलेपन की प्रवृत्ति और तनाव के कारण ही राजधानी दिल्ली में दो-तीन लोगों की मौत हो गई थी। भले ही इस तरह की घटनाओं की संख्या कम हो। लेकिन जिस तरह से भारत में भी अब अकेले रहने की प्रवृत्ति बढ़ रही। उससे आने वाले समय में इस तरह की घटनाओं की संख्या में इजाफा होगा।
टाइम पत्रिका के ताजा अंक में अकेलेपन की बढ़ती प्रवृत्ति का भी जिक्र किया गया है। इस अकेलेपन की प्रवृत्ति में सबसे ऊपर स्वीडन 47 प्रतिशत, ब्रिटेन 34 प्रतिशत, जापान 31 प्रतिशत, कनाडा 27 प्रतिशत, केन्या 15 प्रतिशत, ब्राजील 10 प्रतिशत और भारत 3 प्रतिशत पर है। हालांकि अकेलेपन की सूची में भारत सबसे नीचे है लेकिन यह प्रवृत्ति भारत में भी तेजी से बढ़ रही है।
इस रिपोर्ट को देखकर कहा जा सकता है कि भारत में ही नहीं दुनिया भर में अकेले रहने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इसका एक कारण पढ़ने या काम के कारण अपने परिवार दूर रहना भी है। इससे जहां वह दूसरे राज्य या शहर में जाकर अकेला रहता है। वह दोस्त बनाना चाहता है लेकिन अब ऐसे दोस्त भी बहुत कम मिल पाते है। ऐसे में वह अकेला रह जाता है।
तो एक ओर फेसबुक जिसे दोस्ती का अड्डा भी कहा जाता है । दोस्ती के इस अड्डे पर लोगों के सैकड़ों दोस्त हो लेकिन आज वो दोस्त नहीं है जिसके साथ हम कभी हंसते और रोते थे। वो दोस्त जो हमें समझते थे और हमारी भवानाओं को समझते थे। जो दोस्त हमारे उदास और दुखी होने पर हमें संभाला करते थे। दोस्ती एक ऐसा रिश्ता जिसे हम खुद चुनते थे। यह रिश्ता सबसे अनोखा होता क्योंकि इस रिश्ते में कोई छोटा- बड़ा नहीं होता है।
दूसरी ओर बदलती जीवनशैली भी अकेलेपन को बढ़ावा देने के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार है। सिर्फ यही नहीं इसके कारण संयुक्त परिवार भी टूट रहे हैं। बदलती जीवनशैली तनाव को भी बढ़ा रही है। लिहाजा हर व्यक्ति जाने-अनजाने अवसाद का शिकार हो रहा है।

आज भले ही हम अपने करियर बनाने के लिए दोस्तों और रिश्तों से दूर होते जा रहे है। लेकिन जब कैरियर बन जाता है तब तक हमें अकेले रहने की आदत हो जाती है। अकेले रहना कोई गलत बात नहीं। लेकिन आज अकेले रहने के साथ ही हमारे रिश्तों में भी अकेलापन आ गया है। आज भले ही हमारे पास काफी सुख-सुविधाएं हो। जबकि इन सुख-सुविधाओं के बाद भी हम अकेले रह गए।

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

उत्तरप्रदेश में पार्टियों ने किए अनगिनत वादे

अभी देश में पांच राज्यों पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव हो रहे है। लेकिन इन पांच राज्यों में केवल उत्तरप्रदेश में ही काफी जोर-आजमाइश चल रही है। इसकी एक वजह यह है कि उत्तरप्रदेश से होकर ही केन्द्र की सत्ता का रास्ता भी तय होता है। इन चुनावों को आगामी लोकसभा चुनाव से भी जोड़कर देख जा रहा है। इन चुनावों में जीतने के लिए सभी पार्टियों ने वादों की झड़ी लगा दी है।

कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में जारी किए घोषणा पत्र में 5 साल में 20लाख नौकरियां देने, अत्यंत पिछड़े वर्ग को आरक्षण में आरक्षण देने, 1000 कौशल विकास केन्द्र खोलने, नागरिक चार्टर लाने का, मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के तहत लाने, पूर्वाचल व तराई जैसे पिछड़े अंचलों के विकास के लिए विशेष पैकेज लाने, किसानों को निर्बाध बिजली, नया भूमि अधिग्रहण कानून, बाबरी मस्जिद मामले का न्यायसंगत हल और लड़कियों के हाई स्कूल पास करने पर 1लाख देने का भी वादा किया है।

वहीं भाजपा ने भी अपने घोषणा पत्र में राम मंदिर बनाने का, कांग्रेस के आरक्षण का विरोध करने, किसानों को 1फीसदी ब्याज दर पर दो लाख रूपए के कृषि कर्ज व किसानों के एक लाख रूपए कर्ज माफ करने, किसानों की समस्याओं को दूर करने के लिए कृषक आयोग का गठन, 1000 करोड़ का कोष किसानों के लिए, 5साल में 1करोड़ नए अवसर सृजित करवाने का, बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता देने, मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के तहत लाने, सिटीजन चार्टर लाने, महिलाओं को नौकरी में 33 फीसदी आरक्षण देने, छात्रों को लैपटॉप देने, गोवंश की हत्या रोकने और बलिकाओं के लिए लाडली योजना लाने का वादा किया है।

तो समाजवादी पार्टी ने भी छात्रों को टैबलेट और लैपटॉप देने का, किसान की दुर्घटना में मृत्यु पर 5लाख रुपये का मुआवजा देने का, किसानों व बुनकरों को बिजली व पानी मुफ्त देने का वादा, साइकिल- रिक्शा चालकों को बैटरी व मोटर मुहैया कराने का वादा किया है।

दूसरी ओर, लोजपा के रामविलास पासवान ने भी हर वर्ग को रोटी, शिक्षा, मकान देने, गरीब सवर्णों को नौकरी व शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण देने, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के हर भूमिहीन परिवार को 12 डिसमिल का आबंटन का वादा किया है।

इन सभी पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्रों को देखकर लगता है कि वादे करके ही मतदाताओं को लुभाना और वोट बटोरना है। इस चुनाव में छात्रों को भी लुभाने का पूरा प्रयास किया गया है। पार्टियों की बड़े-बड़े वादे करने की नीति शुरू से है लेकिन इस बार के चुनाव में भी अनगिनत वादे कर दिए। जबकि इन पार्टियों के पिछले पांच वर्षों के पक्ष और विपक्ष की भूमिका को नहीं देख जा रहा है। तो वही एक बार फिर चुनावों में बाबरी मस्जिद के मुद्दे को उठाया जा रहा है। इन चुनावों में भी भ्रष्ट्राचार और कानून व्यस्था कोई अहम मुद्दा नहीं बनाया गया है। इन मुद्दों को देखकर कहा जा सकता है कि अब भी बड़े मुद्दे चुनाव से दूर है।

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

क्या मिलेगी खाद्य सुरक्षा की गांरटी

अभी कुछ समय पहले खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की मंजूरी मिली । इस खाद्य सुरक्षा विधेयक के आने से सभी को भोजन की व्यवस्था करवाने की बात की जा रही है। वही संघ राज्य का कर्तव्य है कि अपने नागरिकों को भूखा न सोने दें। जबकि अभी तक गरीबी निर्धारण के पैमाने तय नहीं किये जा सके है। तो जब भारत में गरीबों की संख्या की सही जानकारी ही नहीं है तो सरकार किस आधार पर कह सकती है कि सभी को खाद्य सुरक्षा दी जायेगी।
इस खाद्य सुरक्षा विधेयक में नागरिकों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। पहली श्रेणी प्राथमिक और दूसरी सामान्य श्रेणी। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में 75 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 50 फीसदी आबादी को रखा गया है। जिसमें ग्रामीण क्षेत्र के 46 फीसदी को और शहरी क्षेत्र के 28 फीसदी को प्राथमिकता दी गई है। जबकि बाकी 29 फीसदी ग्रामीण और 22 फीसदी शहरी आबादी को सामान्य श्रेणी में रखा गया है।
वही इस विधेयक के प्रावधानों के मुताबिक प्राथमिक श्रेणी को चावल 3 रूपये किलो, गेहूं 2 रूपये किलो और मोटा अनाज 1 रुपये किलो की दर पर उपलब्ध करवाया जायेगा। जबकि सामान्य श्रेणी को समर्थन मूल्य की आधी कीमत पर अनाज मुहैया करवाया जायेगा।
यह भी कहा जा रहा है कि इस विधेयक से देश के 63.5 फीसदी लोगों को लाभ मिलेगा। लेकिन किसी विधेयक से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती। इस विधेयक से पहले सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली और अनाज भंडारण की व्यवस्था को भी ठीक किया जाना चाहिए था जो कि अभी नहीं किया जा सका है। इसके साथ ही किसानों को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि अनाज की बढ़ती जरूरत को पूरा किया जा सके। राज्य सरकारें भी इस विधेयक के सहयोग में नहीं है। राज्य सरकारों पर पड़ने वाले बोझ का भी ध्यान नही रखा गया है।
एक ओर, हकीकत यह भी है कि बीपीएल कार्डधारकों को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है जबकि फर्जी कार्डों के माध्यम से कोई और ही इन योजनाओं का लाभ उठा रहा है। पहले की बनी व्यवस्थाओं में सुधार किए बिना इस विधेयक के लाभ के अनुमान भी अन्य योजनाओं और कानूनों की तरह होंगे। नये- नये कानून बनाने के बजाए पुरानी व्यवस्था की खामियों को दूर करके नये कानूनों का पूरा लाभ उठाया जा सकता है।

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

नैतिकता क्यों है जरुरी

अभी कुछ समय पहले तहलका में एक खबर पढ़ी कि ब्रिटेन में अभिभावको की क्लास लगाई जा रही और उनको 100 पाउंड भी दिये जा रहे है। ताकि वह अपने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ा सके । अब इसे भारत के संदर्भ में देखा जाए तो काफी समय से भारत में भी नैतिक मूल्यों पर चर्चा हो रही है। नैतिक मूल्य क्या है? नैतिक मूल्य जहां व्यक्ति को अच्छा इन्सान बनाते है वहीं समाज में जीना भी सिखाते है।
नैतिक मूल्यों का विकास व्यक्ति की शिक्षा, समाज के परिवेश के साथ होता रहता है। पिछले एक दशक से नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही है। इसके लिए कुछ हद तक हमारी आधुनिक शिक्षा जिम्मेदार है आज की शिक्षा अच्छे नागरिक की बजाए अच्छे कर्मचारी बना रही है। आज के नागरिकों के लिए नैतिकता कोई मायने नहीं रखती है। आधुनिकता के दौर में नैतिकता का अभाव हो गया है। पहले जहां अध्यापकों से भी नैतिकता की शिक्षा मिल जाती थी वही आज की आधुनिक शिक्षा में नैतिकता को इतना महत्व नहीं दिया जा रहा। नैतिकता के अभाव में हिंसा बढ़ती जा रही है। भारत में नैतिकता का पाठ पढ़ने के लिए अलग से शिक्षा देनी पड़ेगी । ब्रिटेन की तरह हमें भी अभिभावकों को शिक्षा व पैसे देने पड़ेगे ताकि वह अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा दें। कोई भी माता –पिता नहीं चाहता कि उनका बच्चा बिगड़ जाये । लेकिन आज के बदलते समाज और माता- पिता द्वारा बच्चों को समय न दे पाना भी इसका एक कारण है। नैतिकता की शिक्षा का विकास जीवन भर चलता रहता है।