एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2014 ने एक बार
फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक तीसरी कक्षा के एक
चौथाई बच्चे ही दूसरी कक्षा के पाठ को पढ़ पाते हैं और पांचवीं कक्षा के आधे बच्चे
ही दूसरी कक्षा का पाठ पढ़ सकते हैं। वहीं आठवीं कक्षा के 25 फीसदी बच्चे दूसरी
कक्षा का पाठ भी नहीं पढ़ पाते हैं। 2014 में पांचवीं कक्षा के 48.1 फीसदी बच्चे
दूसरी कक्षा का पाठ पढ़ पा रहे हैं, जोकि 2013 में 47 फीसदी और 2012 में 46.8
फीसदी था। बच्चों के पढ़ने के स्तर में मामूली सा सुधार हुआ है। शिक्षा का अधिकार
कानून के पांच साल बीतने के बाद भी क्या बच्चों के पढ़ने के स्तर में हुए मामूली
सुधार को सुधार कहा जा सकता है, जबकि बच्चों के पाठ पढ़ने के स्तर में बिहार, असम,
झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई बदलाव नहीं
दिखता है।
इसी तरह, छात्रों के अंग्रेजी पढ़ने की
क्षमता में कोई सुधार नहीं दिखता है। 2014 में भी पांचवीं कक्षा के सिर्फ 25 फीसदी
छात्र ही अंग्रेजी का आसान वाक्य पढ़ पा रहे हैं। वहीं 2009 में आठवीं कक्षा के
60.2 फीसदी छात्र अंग्रेजी के वाक्य पढ़ नहीं पाते थे। 2014 में यह दर घटकर 46.8
फीसदी हो गई है। उच्च प्राथमिक कक्षा में छात्रों के अंग्रेजी पढ़ने के स्तर में
सुधार हुआ है। पिछले एक दशक से हमारे यहां बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर दिया
जा रहा है, लेकिन स्थिति यह है प्राथमिक स्तर पर भी बच्चे अंग्रेजी के सरल वाक्य
को नहीं पढ़ पा रहे हैं। तो इसकी एक वजह प्राथमिक शिक्षा को अपनी भाषा में न देना
और बच्चों पर अंग्रेजी पढ़ने के लिए अनावश्यक दबाव बनाना भी है।
वहीं ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में अंकगणित
में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है। 2014 में तीसरी कक्षा के 25.3 फीसदी बच्चे ही अपने
को दो अंकों की संख्या को घटाने में सक्षम पाते हैं, जबकि 2012 में यह आंकड़ा 26.3
फीसदी था जिसमें गिरावट आई है। पांचवीं कक्षा के बच्चों के भाग करने की क्षमता
मामूली सी बढ़ोतरी हुई है। 2009 में दूसरी कक्षा के 11.3 फीसदी बच्चे शून्य से नौ तक
के अंक को नहीं पहचान रहे, लेकिन अब यह आंकड़ा 19.5 फीसदी हो चुका है।
2013 के मुकाबले निजी स्कूलों में नामांकन
सभी राज्यों में बढ़ा है जिसमें गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, नगालैंड और केरल
शामिल हैं। पांच राज्यों मणिपुर, केरल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मेघालय के निजी
स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर नामांकन बढ़कर 50 फीसदी पहुंच गया है। प्राथमिक स्तर
पर निजी स्कूलों में बढ़ते नामांकन के वाबजूद भी बच्चों के पाठ पढ़ने, सीखने की
क्षमता और अंकगणित में कोई खास सुधार न होना यह बताता है कि शिक्षा के क्षेत्र में
निजी स्कूलों की संख्या के बढ़ने से शिक्षा के स्तर में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ
है। निजी स्कूलों में बढ़ते नामांकन से यह बात साफ हो जाती है कि सरकारी स्कूलों
के प्रति लोगों का भरोसा घटता जा रहा है। निजी स्कूलों में लड़कियों के मुकाबले
लड़कों का अनुपात तेजी से बढ़ा है।
6-14 साल के बच्चों का नामांकन 96 फीसदी
हो गया। लेकिन 15-16 साल के बच्चों के नामांकन के आंकड़ों को उत्साहजनक नहीं कहा
जा सकता क्योंकि 15.9 फीसदी लड़के और 17.3 फीसदी लड़कियों अभी भी स्कूली शिक्षा से
दूर हैं। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि शिक्षा का अधिकार कानून बनाने के कारण
स्कूलों में 6-14 के बच्चों के नामांकन में वृद्धि हुई है और बुनियादी सुविधाएं भी मिली है। स्कूलों में
नामांकन में वृद्धि होने को शिक्षा के सुधार के तौर पर नहीं
देखा जा सकता है, वो भी खासकर जब 6-14 के साल बच्चों के ही नामांकन में वृद्धि हो।
प्राथमिक कक्षा के बच्चों का नामांकन भले ही बढ़ा हो, लेकिन पढ़ने और सीखने के
स्तर तथा अंकगणित में कोई सुधार नहीं हुआ है।
तमिलनाडु में 2012 में कक्षा 5 के 31.9
प्रतिशत बच्चे ही दूसरे कक्षा का पाठ पढ़ पाते थे, लेकिन अब यह आंकड़ा 46.9 फीसदी
पहुंच गया है। तमिलनाडु में यह सफलता अलग-अलग आयु वर्गों के बच्चों को उनकी सीखने
की क्षमता के अनुसार अलग कक्षाओं में बैठाने के नये प्रयोग से मिली है।
इस बिनाह पर कहा जा सकता है कि बच्चे समूह
में पढ़ने पर ज्यादा बेहतर सीखते हैं। बच्चों की क्षमताओं के अनुसार ही उनको पढ़ाया
जाए तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। जब बच्चों को बुनियादी शिक्षा ही गुणवत्तापूर्ण
नहीं मिल पा रही है, तो हम प्राथमिक तौर पर उच्च शिक्षा और उच्च शिक्षा के स्तर की
कल्पना कैसे कर सकते हैं।