बुधवार, 24 दिसंबर 2014

स्कूल में सजा की परम्परा और बच्चे

हमारे यहां स्कूलों में बच्चों को सजा देने या उनसे मारपीट की घटनाएं निरंतर हो रही हैं। सजा देने की प्रवृत्ति सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में दिखती है। उदाहरण के तौर पर यहां तीन घटनाओं को देखा जा सकता है। 8 नवंबर को कानपुर के विजय नगर स्थित राजकीय कन्या इंटर कॉलेज के छात्र विनीत कुमार को उसके शिक्षक ने ऐसी सजा दी जिससे आहत होकर उसने घर आकर फांसी लगा ली। 26 नवंबर को हरियाणा में फरीदाबाद के एक पब्लिक स्कूल में होमवर्क न करने पर आठवीं कक्षा के छात्र को अध्यापक ने चपरासी बनने की बात कही जिससे आहत होकर उसने खुद को आग लगा ली। 27 नवंबर को मध्य प्रदेश में रतलाम के सरकारी आदर्श माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक ने छठी कक्षा के छात्र को इतना पीटा कि उसकी नाक फूट गई। इस तरह की कई सारी घटनाएं देशभर में देखने को मिल जाएंगी।

इसी साल अगस्त में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय के डिपार्टमेंट ऑफ स्कूल एजुकेशन एंड लिटरेसी ने स्कूलों को निर्देश दिए थे, जबकि इस तरह की घटनाओं को रोकने का शिक्षा का अधिकार कानून 2009 में भी प्रावधान किया गया है। कानून की धारा 17 (1) में कहा गया है कि बच्चों को किसी भी तरह से शारीरिक दंड या मानसिक तौर पर उत्पीड़ित न किया जाए। धारा 17 (2) में कहा गया है कि धारा 17 (1) के उल्लंघन करने पर सेवा नियमों के तहत उस व्यक्ति पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। यहां सवाल उठता है कि इस तरह की घटनाएं क्यों नहीं रुक रही हैं।

दरअसल, हमारी शिक्षा व्यवस्था का पूरा ढांचा ही इसके लिए जिम्मेदार है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में बच्चों को सिखाया नहीं जाता, बल्कि रटाया जाता है ताकि वह परीक्षा में अधिक से अधिक अंक ला सके। शिक्षक पर पाठ्यक्रम को पूरा कराने और परीक्षा के लिए बच्चों को तैयार करने का दबाव होता है। यह पाठ्यक्रम ऊंचे शोध संस्थानों और अधिकारियों के कार्यालयों में बनाया जाता है जिसमें शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं होती है। इस वजह से भी बच्चों को सजा देने की घटनाएं बढ़ रही हैं। साथ ही देश में शिक्षक और बच्चों के बीच अनुपात ऐसा है कि वह छात्रों की क्षमताओं और आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दे पाते हैं और शिक्षक सिर्फ अपना पाठ्यक्रम पूरा करने पर ज्यादा जोर देता है।

हमारे यहां शिक्षक की जैसे-जैसे लाचारी बढ़ी है, उसी तरह से स्कूल में उसकी क्रूरता बढ़ती जा रही है। हमारी व्यवस्था में स्कूल को हिंसक बनाने वाले तत्व लगातार सक्रिय रहे हैं। विरासत चाहे अंग्रेजी राज से मानें, चाहे शिक्षा प्रणाली की स्थापना के पहले चल रही शिक्षा से, बच्चों पर हिंसा हमारी स्कूली संस्कृति का स्वीकृत अंग रही है। हमारे समाज में बच्चे को अनुशासन में रखने के लिए बच्चों के साथ मारपीट करने और उन्हें डराने की संस्कृति को स्वीकृति मिली हुई है। स्कूल का काम बच्चों की क्षमताओं और कौशल को विकसित करना होता है, लेकिन स्कूलों में उनकी क्षमताओं और कौशल को विकसित करने के बजाए बच्चों को कहा जाता है कि वह सीखने या पढ़ने लायक नहीं है जिससे बच्चे अपना आत्मविश्वास खो देते हैं और सजा दिए जाने के लिए भी खुद को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं।

इस बात को राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर) के स्कूलों में शारीरिक दंड अध्ययन से समझा जा सकता है। जिसमें कहा गया है कि निजी स्कूलों में बच्चों के साथ सरकारी स्कूलों के मुकाबले ज्यादा क्रूर व्यवहार होता है। इसी अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि लड़कें और लड़कियां दोनों सजा पाते हैं। जबकि हमारे समाज में यह धारणा बनी है कि लड़कियों को कम सजा मिलती है, जो कि गलत है। यह अध्ययन सात राज्यों में किया गया था।


चाइल्ड साइकलॉजी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस बात को मनाते है कि बच्चों को मार-पीट या डाटने के बजाए प्यार से समझाना चाहिए। हमारे समाज में अनुशासन को डाटने और मार-पीट करने तक सीमित कर दिया है। मार-पीट करने या डाटने के बजाए बच्चों को इस तरह से शिक्षित किया जाए कि वह अनुशासन के महत्व को समझे और वह खुद को अनुशासित रखें। महज शिक्षकों को मारपीट या सजा न देने के निर्देशों से सुधार नहीं होगा। शिक्षकों पर हावी दबावों को भी समझना होगा और शिक्षा व्यवस्था की खामियों में भी सुधार करना होगा, तभी इस तरह की घटनाओं में कुछ कमी आ सकती हैं। 

रविवार, 7 दिसंबर 2014

आजादी बनाम सुरक्षा संदर्भ सीसीटीवी कैमरा

हरियाणा रोडवेज की बस में छेड़छाड़ करने वाले मनचलों को दो बहनों ने सबक सिखाया। जबकि पूरी बस में सभी लोग तमाशबीन बनकर तमाशा देखते रहे, सिर्फ एक गर्भवती महिला ने ही उनका विरोध किया। इस तरह की घटनाएं दिल्ली, हरियाणा या फिर कोई और राज्य सभी जगह हो रही है। दिल्ली में महिलाओं और आमलोग की सुरक्षा का तर्क देकर दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) ने अपनी 200 बसों में सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं। कहा जा रहा है कि इन कैमरों को बसों में सफर करने वाले लोगों, खासकर के महिलाओं की सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए लगाया गया हैं। हर बस में तीन-तीन कैमरे लगाए गए हैं। 200 बसों में एसी लो फ्लोर और नॉन एसी लो फ्लोर बसें शामिल हैं। इससे ठीक पहले दिल्ली पुलिस ने भी राजधानी के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरे लगाने का फैसला किया। यहां सवाल उठता है कि क्या महज सीसीटीवी तकनीक के जरिए ही आमलोगों और महिलाओं की सुरक्षा हो सकती है। क्या अब सार्वजनिक परिवहन के तहत चलने वाली बसों में भी सीसीटीवी कैमरों की जरूरत है जिसमें सैकड़ों लोग सफर करते हैं। जब सैकड़ों लोगों के बीच कोई लूट-पाट या छेड़छाड़ की घटना होती है, लेकिन उस घटना को रोकने के लिए कोई भी आगे नहीं आता। इसकी एक वजह यह है कि हम लोगों एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां हम अन्य लोगों के प्रति संवेदनहीन होते जा रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि आम जनता पुलिस से दूर ही रहना चाहती है, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति किसी की मदद भी करना चाहता है तो हमारा पुलिस और प्रशासनिक तंत्र मदद करने वाले को ही अपने शिकंजे में लेने की कोशिश करता है। साथ ही उसे लंबे समय तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं। तब क्या महज सीसीटीवी कैमरों के लगाए जाने के बाद आम लोग या महिलाएं बसों में सुरक्षित होगी, यह कहना मुश्किल है।

सीसीटीवी कैमरों से पहले डीटीसी बसों में ही सुरक्षा के नाम पर और यात्रियों की सुविधा का तर्क देकर जीपीएस सिस्टम को लगाया गया था ताकि बसों की वास्तविक स्थिति और रूट की जानकारी मिल सके है। लेकिन जीपीएस सिस्टम के बावजूद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। दिल्ली सरकार का एक और फैसला जिसके तहत रात में चलने वाली डीटीसी बसों में होमगार्ड जवानों को तैनात करने की बात कही। लेकिन इन सभी फैसलों के बाद भी अपराध की घटनाओं में कोई कमी नहीं हुई।
जब सड़कों और मुख्य मार्गों पर सीसीटीवी कैमरों को लगाया जा रहा है, तब फिर बसों में इन कैमरों की क्या जरूरत है। गौरतलब है कि कैसे मेट्रो में लगे सीसीटीवी कैमरों का दुरुपयोग हुआ और उनसे अश्लील वीडियो क्लिप्स बनाए गए। मेट्रो स्टेशनों पर सीसीटीवी होने के बावजूद चोरी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इससे भी यह बात साफ होती है कि महज तकनीक के जरिए ही चोरियां नहीं रोकी जा सकती हैं।

आम लोगों की सुरक्षा का तर्क देकर सरकार आसानी से सड़कों, बाजारों के बाद अब बसों में भी सीसीटीवी कैमरे लगा रही है। लेकिन यहां एक सवाल उठता है कि इस तरह से बढ़ती सीसीटीवी कैमरों की निगरानी क्या आम लोगों की आजादी के खिलाफ नहीं है? इस तकनीक के जरिए क्या अपराधों को कम किया जा सकता है? ब्रिटेन जैसे देश में जहां पर सबसे अधिक सीसीटीवी कैमरे लगाए गए है जब वहां पर अपराध दर में कमी नहीं आई है। तो फिर हम क्यों सीसीटीवी के जरिए अपराध दर को कम कर लेना चाहते है, जो कि संभव नहीं है। सरकार और प्रशासन अपराध के कारणों की जड़ों में जाने के बजाए सीसीटीवी कैमरों को ही समाधान मानने लगा है। इससे सरकार और प्रशासन अपनी जिम्मेदारी से भी बच जाते हैं और सुरक्षा व्यवस्था में होने वाली खामियों को भी छिपा लेते हैं।
   
सीसीटीवी कैमरों के जरिए सिर्फ हमें अपराध की घटना के संबंध सुराग या सबूत ही मिल सकते है। इस तकनीक की मदद से मिले सुराग या सबूत के बाद भी पुलिस कई घटनाओं में अपराधी को पकड़ने पाने नाकाम रही है। इस बात से यह भी स्पष्ट होता है कि महज इस तकनीक के भरोसे सुरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता। यह तकनीक हमारी सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर कर सकती है, लेकिन सीसीटीवी कैमरों के भरोसे ही सुरक्षा की बात करना बेमानी है। इस तकनीक का इस्तेमाल भी उतना ही किया जाना चाहिए जिससे आम आदमी की आजादी खतरे में न पड़े।

हमारे समाज में सुरक्षा के नाम पर सी.सी.टी.वी कैमरे का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। इस बात को ऐसोचैम की 2012 की रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सीसीटीवी के बाजार की समग्र वार्षिक विकास दर 30 प्रतिशत है और एक अनुमान के मुताबिक यह 2015 तक 2200 करोड़ रुपये का हो जाएगा। इस समय भारत में कुल इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा बाजार 2400 करोड़ का है जिसमें सीसीटीवी कैमरे का प्रतिनिधित्व 40 प्रतिशत है और सीसीटीवी कैमरे का बाजार तेजी बढ़ कर रहा है। भारत का सीसीटीवी बाजार वैश्विक औसत के मुकाबले भी तेजी से बढ़ रहा है और एशियन देशों में चीन भी इसी तेजी से विकास कर रहा है। 


अगर इसी तरह से सुरक्षा के नाम पर सीसीटीवी कैमरों को बढ़ावा दिया गया तो इससे अपराध दर भले ही न घटे लेकिन इसे आम आदमी की आजादी जरूर खतरे में पड़ जाएगी। इस तकनीक को ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने बजाए बेहतर होगा कि हम पुलिस सुधार पर ज्यादा बल दें। पुलिस सुधार को लेकर कई कमेटियां का गठन हुआ, लेकिन उन कमेटियां की सिफारिशों को आज तक अमल में नहीं लाया गया है। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट के व्यापक दिशा-निर्देश के बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। आम लोगों के बीच पुलिस को अपनी छवि को सुधारना होगा, ताकि पुलिस और जनता के बीच संबंध कायम हो सके। तभी इस तरह की घटनाओं को रोक जा सकता हैं।