रविवार, 28 सितंबर 2014

सिर्फ का विज्ञापन

                                                                      
मात्र  या सिर्फ एक ऐसा शब्द है जो पिछले एक दशक से कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर रियल एस्टेट मार्केट तक काफी प्रचलित हो गया है। अंग्रेजी में इस शब्द के लिए ओन्ली का प्रयोग किया जाता है। आज अगर हम किसी चीज को खरीदने के लिए बाजार जाते है तो हमें वस्तु की कीमत लिखी हुई मिलती है कि यह वस्तु मात्र 499 रुपये की है। ठीक इसी प्रकार कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक और रियल एस्टेट के विज्ञापनों को देखें तो उनके विज्ञापनों में भी इस शब्द का बखूबी इस्तेमाल किया जाता है। उपभोक्ता इससे आकर्षित भी होते है।

कपड़े का विज्ञापन होगा, तो उसमें बताया जाता है कि सिर्फ 399 रुपये में शर्ट या टीशर्ट खरीद सकते है। इसी तरह से मोबाइल फोन के विज्ञापन में कहा जाता है कि मात्र 2999 रुपये में यह मोबाइल खरीद सकते है। यहां तक तो ठीक भी कहा जा सकता है, लेकिन रियल एस्टेट मार्केट ने तो इस शब्द को काफी अच्छे भूनाया है। रियल स्टेट के एक विज्ञापन को देखें। श्री बांके बिहारी मंदिर और एनएच-दो से मात्र 10 मिनट की दूरी पर और रेलवे स्टेशन से 1 किमी की दूरी पर अपना घर बुक कराएं। रियल एस्टेट के ज्यादातर विज्ञापन इसी तरह के होते है। एक अन्य विज्ञापन एक रूम फ्लैट रुपये 9 लाख रुपये में मात्र।

कभी-कभी विज्ञापनों में मात्र की जगह सिर्फ और केवल का भी प्रयोग किया जाता है। इस शब्द के जरिए कैसे कपड़े से लेकर रियल एस्टेट मार्केट तक ने लोगों को यह एहसास करवा दिया है कि यह चीज या सामान सस्ता है। कहा जाता है कि यह चीज सिर्फ या मात्र इतने की है। 299 रुपये, 399 रुपये बताने का जो ट्रेंड है वह यहीं बताता है कि यह चीज सस्ती है।   दुकानदार कहता है कि सिर्फ 399 रुपये की ही तो है। तब हमें लगता है कि वाकई यह चीज तो सस्ती है। जबकि ऐसा नहीं है।

रियल एस्टेट ऐसा सेक्टर बनकर उभरा है जो टीवी से ज्यादा प्रिंट मीडिया के लिए विज्ञापन जारी करता है। अखबारों में रियल एस्टेट प्रोजेक्ट के विज्ञापनों की भरमार होती है। रियल एस्टेट के लिए जैसे मात्र या सिर्फ शब्द वरदान बन गया है। तभी तो बिल्डर बड़े आराम से अपने फ्लैट या ऑफिसों के आस-पास बने मंदिर, हाईवे, मेट्रो और विश्वविद्यालय को ग्राहकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनाकर फ्लैट या ऑफिस बेच रहा है, जबकि इन सुविधाएं को ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए उसने कोई खास मेहनत नहीं की। इंसान अपने घर के आस-पास मूलभूत सुविधाओं की इच्छा तो रखता ही है, लेकिन वह बिल्डर अपने विज्ञापन में अस्पताल, स्कूल, मंदिर और मेट्रो को आकर्षण के तौर पर इस्तेमाल करता है। अब तो रियल एस्टेट मार्केट के लोगों ने हद कर दी है। आजकल तो बिल्डर अपने विज्ञापनों में किसी नये हाइवे या विश्वविद्यालय बनने के प्रस्ताव को भी ग्राहकों के आकर्षण का केन्द्र बनाने की कोशिश कर रहे है। अमूमन इन आकर्षणों के दम पर ही बड़े-बड़े बिल्डर जिनके फ्लैट्स की कीमत कभी 10 लाख होती थी, वह उन्हीं फ्लैटों को बड़े आराम से अब 25 लाख तक में बेच रहे हैं।

इन विज्ञापनों के कारण ही नौकरी लगते ही इंसान अपने लिए फ्लैट बुक कराने की जुगत में भिड़ जाता है। वह रियल एस्टेट की वन बीएचके, टू बीएचके डुप्लेक्स, मिनी टाउनशिप की शब्दावली से भी परिचित हो गया है। इंसान के इसी अपना घर पाने की इच्छा को रियल एस्टेट ने अच्छे से भूनाया है।

कहा जाता है कि विज्ञापन में कहे गए शब्द ही विज्ञापन को आकर्षक बनाते है। रियल ऐस्टेट के विज्ञापनों में प्रयोग मात्र या सिर्फ शब्द ने ही विज्ञापन को प्रभावी और आकर्षक बना दिया है। इन्हीं विज्ञापनों से प्रभावित होकर ही लोग बड़ी परियोजना में निवेश कर रहे हैं।

रविवार, 21 सितंबर 2014

हिन्दी का विकास हो रहा है !

                                                                                                         - संजय कुमार बलौदिया
आज हिन्दी अखबारों के भले ही करोड़ों पाठक है। हिन्दी अखबारों के करोड़ों पाठकों के आधार पर कहा जाता है कि हिन्दी फल-फूल रही है। लेकिन शायद हम यह भूल जाते है कि आज के हिन्दी अखबार अब सिर्फ हिन्दी के नहीं रहे है, बल्कि वह हिंग्लिश भाषा के हो गए है। साथ ही अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है।     

जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अखबार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में, बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अखबार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापने के आदेश दिए और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की गई। पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने हिंदी को आसान बनाने के नाम पर धड़ल्ले अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया और अब हिंदी का वाक्य बिना अंग्रेजी के शब्द के पूरा ही नहीं होता है। क्या हिंदी को आसान बनाने के लिए बोलियों और भारतीय भाषाओं से शब्द नहीं लिए जा सकते है। अगर बोलियों और भारतीय भाषाओं के शब्दों को हिन्दी को आसान बनाने में प्रयोग किया जाता, तो अंग्रेजी वर्चस्व कैसे बना रहता। संसार की इस दूसरी बड़ी बोली जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीनकर उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के सभी अखबार जुट गए हैं।

हिंदी और पत्रकारिता दोनों का आपस में रिश्ता रहा है। उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। हिन्दी को पालने-पोसने में हिन्दी पत्रकारिता ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन अब वहीं हिंदी पत्रकारिता करने वाले अखबार अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाये रखने में जुट गए है। अब तो हिंदी अखबार एक कदम आगे बढ़कर अपने पाठकों को अंग्रेजी भी सिखाने लगे हैं। इसके लिए निर्धारित पृष्ठों पर अंग्रेजी शब्द देकर उच्चारण को सुधारने या अंग्रेजी वाक्य बनाने भी सिखाए जा रहे है। आज कई अखबारों और चैनलों की भाषा हिंदी न होकर हिंग्लिश रह गई है।

ठीक इसी तरह हिंदी सिनेमा भी तेजी से फल-फूल रहा है। आज हमारी फिल्में तो हिन्दी में है, लेकिन उनके नाम अंग्रेजी में हो गए है जैसे - वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई, देल्ही बेली, फाइंडिंग फेनी और क्रीचर 3 डी आदि। ऐसा लगता है कि हिन्दी सिनेमा के पास भी फिल्मों के लिए हिंदी के शब्द कम पड़ गए है। इसके बावजूद हिन्दी सिनेमा व्यवसाय तेजी बढ़ रहा है, तो इसकी भी वजह हिंग्लिश ही है।

संविधान में हिंदी को संघ की राजभाषा का दर्जा 14 सितम्बर 1949 को दिया गया था इसी वजह से 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिले छह दशक से भी ज्यादा समय हो गया है, लेकिन हमारे देश में हिंदी अभी तक प्रशासनिक काम-काज की भाषा नहीं बन पाई है। आज भी चाहे प्रश्न-पत्र हो या सरकारी चिट्ठी, राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी ही है। पूरी दुनिया में बार-बार यह बात साबित हुई है कि शिक्षा में जितनी सफलता मातृ-भाषा माध्यम से प्राप्त होती है उतनी सफलता विदेशी भाषा माध्यम से प्राप्त नहीं हो सकती। लेकिन हमारे नीति निर्माता यह मानकर बैठे है कि अंग्रेजी के बिना हमारा विकास हो ही नहीं सकता। इसी का नतीजा है कि देश में उच्च शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता कानूनी नहीं है, लेकिन उसे अनिवार्य की तरह लागू करने की कोशिश तेजी से हो रही है। हमारे देश में यह मान लिया गया है कि अंग्रेजी ही ज्ञान की एकमात्र भाषा है। आज दुनिया के लगभग सभी गैर-अंग्रेजी भाषी देश अपने देशों से अंग्रेजी भाषा के प्रभाव को समाप्त करने में लगे हैं। लेकिन हम लोग अपनी सारी शिक्षा, संस्कृति, संचार अंग्रेजी भाषा के हवाले किए जा रहे हैं।     
  
करीब सौ साल पहले तक हमारे समाज के प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने अंग्रेजी सीखने के बावजूद अपनी मातृभाषा में काम किया। लेकिन हम लोग अंग्रेजी सीखने के लिए अपनी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करने से भी पीछे नहीं हट रहे है। अन्य भाषाओं को सीखने की बात ही कहां रह जाती है। जबकि अमेरिका जैसा देश भी अपनी मातृभाषा के साथ ही अन्य भाषाओं को सीखने की कोशिश करता है। इसी तरह चीन, जापान भी अपनी भाषा में ही काम कर रहे है और अन्य भाषाओं को भी सीख रहे है। लेकिन हम लोग अंग्रेजी के पीछे इसलिए पड़े है ताकि अच्छी नौकरी मिल जाए। यह भी जरूरी नहीं है कि अंग्रेजी की डिग्री या अंग्रेजी सिखने के बाद भी नौकरी मिल ही जाए। फिर भी हम लोग अपने बच्चों पर अंग्रेजी सिखने के लिए दबाव बनाते रहते है।