मंगलवार, 25 जून 2013

छात्रवृत्ति से वंचित रखने के विचार की पहचान

                                                             
अभी कुछ समय पहले ही राजीव गांधी राष्ट्रीय फेलोशिप की योजना के लिए 125 करोड़ रुपये के आवंटन को घटाकर 25 करोड़ कर दिया है। इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह फेलोशिप अनुसूचित जाति के छात्र-छात्राओं को वित्तीय सहायता देकर उन्हें सशक्त बनाने के लिए है। इसका कारण यह बताया जा रहा है कि यूजीसी ने न तो लाभार्थियों की सूची पेश की और न ही पिछले वर्षों के 150 करोड़ रुपये के उपयोगिता प्रमाणपत्र पेश किए। ऐसा सिर्फ इस फेलोशिप या छात्रवृत्ति के साथ नहीं है। बल्कि उच्च शिक्षा के स्तर पर देखे तो पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना के तहत केंद्र सरकार एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरटी के छात्र-छात्राओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाकर उनकी उच्च शिक्षा में भागीदार को बढ़ाना चाहती है, लेकिन ऐसा पूर्ण रूप से नहीं हो पा रहा है। यहां भी उसी जटिल प्रक्रिया के नाम पर छात्रों को वर्ष के अंत में छात्रवृत्ति मिलती है या कभी-कभी मिलती ही नहीं है।

इसका एक उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय का अदिति कॉलेज है। कॉलेज की छात्राओं ने आरटीआई का उपयोग कर छात्रवृत्ति संबंधी कुछ सूचनाएं जुटाई। जिसमें यह जानकारी मिली कि 2011-12 में 102 छात्राओं ने ही छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किए, जबकि छात्रवृत्ति योग्य छात्राओं की संख्या 207 है। इससे यह पता चलता है कि 95 छात्राओं को छात्रवृत्ति संबंधी की जानकारी ही नहीं मिली या किसी कारण से वह आवेदन नहीं कर सकी। आवेदन करने वाली 102 छात्राओं में से किसी को भी छात्रवृत्ति नहीं मिली है। तब तीन छात्राओं ने आवेदन भरने के बाद भी छात्रवृत्ति न मिलने का कारण जानना चाहा, तब उन्हें बताया गया कि उनके फार्मों में त्रुटियां थी। वहीं, जब छात्रसंघ की अध्यक्ष आरटीआई के माध्यम से छात्रवृत्ति संबंधी जानकारी मांगती है, तो यह बताया जाता है कि फार्म जमा ही नहीं हुए। इन सब बातों को देखकर लगता है कि इस कॉलेज में या तो घोर लापरवाही बरती जा रही या मामला कुछ ओर ही है। इसमें कॉलेज प्रशासन की लापरवाही तो साफ नजर आ रही है। वहीं, एक छात्रा के पिता द्वारा वाइस चासंलर से इस संबंध में दो बार शिकायतें करने के बाद भी इस मामले पर कोई कार्रवाई न होना यह दर्शाता है कि विश्वविद्यालय भी इस मामले की उपेक्षा कर रहा है।

दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके एक अदिति कॉलेज के इस वृतातं को महज एक उदाहरण के रूप में देखना चाहिए। आमतौर पर एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरटी छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति मुहैया नहीं हो पाने की स्थितियां तैयार करना एक साजिश के तौर पर दिखता है।वर्चस्ववाद एक विचार और वह समय और स्थितियों के अनुसार वंचितों को वंचित बनाए रखने के रूप तैयार करता है। आज के दौर में छात्रवृति से वंचित रखना पहले शिक्षा से दूर रखने के ही बराबर है।   गौरतलब है कि इस छात्रवृत्ति से सिर्फ इन छात्र-छात्राओं को आर्थिक मदद ही नहीं मिलती, बल्कि इनको अपने आप को सशक्त बनाने में भी मदद मिलती है।जहां छात्रवृत्ति  मिल जाती है वहां यह छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा हासिल कर लेते हैं। डा. भीम राव आम्बेडकर को मदद नहीं मिलती तो वे भी आज बतौर संविधान निर्माता हमारे सामने नहीं होते। यदि किसी एक भी छात्र को छात्रवृत्ति न मिले, तब उनकी मनोदशा का अंदाजा हम लगा सकते। आदिवासियों की दशा दिशा पर लिखते हुए रमणिका गुप्ता अपनी पुस्तक आदिवासी अस्मिता का संकट में भी बताती है कि सरकार वजीफा देती है आदिवासी छात्रों को, लेकिन आधा पैसा वितरण करने वाला रख लेता है और जो मिलता है, वह इतनी देर से कि उसका उपयोग पढ़ाई की जगह, दूसरी जगह हो जाता है।यानी दिल्ली और सुदूर आदिवासी इलाकों में एक ही तरह के विचार किन किन रूपों में सक्रिय हैं, इसकी थाह ली जा सकती है।

एक कॉलेज जब वाजिफे से वंचित करता है तो वह  दिन दूर नहीं होता है जब कॉलेज की छात्रवृत्ति में भी कटौती कर दी जाती है। राजीव गांधी छात्रवृति का उदाहरण सामने हैं। अब इसमें छात्राओं का क्या दोष है। दरअसल ये वर्चस्वादी विचार की सक्रियता है जो प्रशासन की लापरहवाही और  गलती के रूप में दिखती है और सजा छात्राओं को भुगतनी पड़ेगी। इस प्रकार की छात्रवृत्तियां इन छात्रों को प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही दी जाती है। ताकि आर्थिक रूप से कमजोर छात्र शिक्षा से वंचित न हो सके।

मजेदार बात है कि दिल्ली विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा को अधिकाधिक छात्रों तक पहुंचाने के लिए फीस माफी योजना बनाए जाने का प्रचार कर रहा है। इसके तहत अनूसचित जाति और जनजाति के साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर तबके के छात्रों की फीस भी माफ करेगा।लेकिन सवाल यह है कि जब पहले से मौजूद योजनाओं से छात्रों को वंचित रखने के विचार सक्रिय हो और उसे संरक्षण भी मिलता दिख रहा हो तो  इस नई योजना से क्या उम्मीद की जा सकती है। इस योजना को लाभकारी बनाने के लिए यह सुनिश्चित करना भी जरुरी है कि उन छात्रों को पर्याप्त मदद मिले, जो इसके योग्य हो।

                                                                                                                         संजय कुमार

सोमवार, 3 जून 2013

महिलाओं की अनदेखी करता है आकाशवाणी

-संजय कुमार

"...मीडिया स्टडीज ग्रुप के इस सर्वे में रेडियो के सर्वाधिक प्रसार और सुने जाने वाले चैनल आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से एक वर्ष के दौरान प्रसारित हुए 527 कार्यक्रम और उनमें विशेषज्ञ के तौर पर बुलाए गए 244 लोगों को विश्लेषण के तौर पर पेश किया गया। सर्वे बताता है कि कैसे आकाशवाणी के कार्यक्रमों से महिलाएं और ग्रामीण महिलाएं गायब होती जा रही है।..."


निजी एफएम चैनलों से होड़ करते हुए आकाशवाणी ने व्यापक बदलाव का मन बना लिया है। आकाशवाणी के इस बदलाव में युवाओं को लुभाना और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करना शामिल है। लेकिन आकाशवाणी के इस बदलाव ने अपने कई पारंपरिक श्रोताओं और प्राथमिकताओं को भी बदल दिया है। मसलन आकाशवाणी की ताकत भारत के ग्रामीण समाज और खासकर घरों में रहने वाली महिलाओं से है, लेकिन वह राष्ट्रीय स्तर पर आकाशवाणी के कार्यक्रमों से गायब हो रहा है।
 
अभी हाल ही में मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपने सर्वे में खुलासा किया कि कैसे महिलाएं और खासकर ग्रामीण महिलाएं आकाशवाणी के दायरे से बाहर हो रही हैं। ग्रुप की ओर से विजय प्रताप द्वारा किए गए इस सर्वे को संचार और मीडिया की शोध पत्रिका जन मीडिया ने अपने मई, 2013 अंक में प्रकाशित किया है। इस सर्वे के अनुसार एक वर्ष के दौरान आकाशवाणी में राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं पर केंद्रित केवल 1.52 प्रतिशत कार्यक्रम ही पेश किए गए। ये कार्यक्रम भी शहरी पृष्ठभूमि की महिलाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित रहे। आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र द्वारा महिलाओं पर केंद्रित कार्यक्रमों का अध्ययन करने के लिए इस समूह ने सूचना का अधिकार (2005) के तहत आवेदन के जरिये सूचनाएं एकत्रित की। मीडिया स्टडीज ग्रुप के इस सर्वे में रेडियो के सर्वाधिक प्रसार और सुने जाने वाले चैनल आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से एक वर्ष के दौरान प्रसारित हुए 527 कार्यक्रम और उनमें विशेषज्ञ के तौर पर बुलाए गए 244 लोगों को विश्लेषण के तौर पर पेश किया गया। सर्वे बताता है कि कैसे आकाशवाणी के कार्यक्रमों से महिलाएं और ग्रामीण महिलाएं गायब होती जा रही है।

आकाशवाणी का दावा है कि राष्ट्रीय लोक प्रसारक के रूप में वह सभी वर्ग के लोगों को सशक्त बनाने को वचनबध्द है। लेकिन यह तभी मुमकिन है जब सामाजिक दायित्व को ध्यान में रखकर आकाशवाणी पर प्रसारित किए जाने वाले अपने कार्यक्रमों को तैयार करे। कहा जाता है कि आकाशवाणी बहुजन हितायबहुजन सुखाय के अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिये कार्यरत है। इसकी पहुंच देश के 92% क्षेत्र और कुल जनसंख्या के 99.18% तक है।

निजी समाचार माध्यम शहरी और बहुसांकृतिक महानगरों (कॉस्मोपॉलिटन) की आबादी को अपना लक्षित समूह निर्धारित कर चुके हैं। इस स्थिति में देश के दूर दराज के इलाकों में रहने वाली आबादी की आकाशवाणी से ज्यादा अपेक्षा रहती है। जिसके जरिए वह अपनी समस्याओं और तकलीफ की वजहों को जानना व उसे साझा करना चाहेंगे। मगर आकाशवाणी में आयोजित कार्यक्रमों के विषय वस्तुओं में महिला, किसान, दलित-आदिवासी और पिछड़े व अल्पसंख्यक समाज के सवालों का अभाव दिखता है। इस अध्ययन के अनुसार यह चिंता ना तो केवल भारत की है और ना ही अभी की है, बल्कि महिलाओं के साथ भेदभाव का यह सिलसिला निरंतर चला आ रहा है। बीजिंग में हुए चौथे वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑफ वुमेन (1995) में मीडिया द्वारा महिलाओं के रुढ़िवादी छवि पेश किए जाने के संबंध में कहा था कि अभी भी कुछ श्रेणियों की महिलाएं मसलन गरीब, असहाय या वृद्ध महिलाएं जो अल्पसंख्य तबकों या जातिय समूहों से ताल्लुक रखती हैं, मीडिया से पूरी तरह गायब हैं। मीडिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर भारत में प्रथम प्रेस आयोग (1954) और द्वितिय प्रेस आयोग (1980) ने चिंता जाहिर की थी। दूसरे प्रेस आयोग द्वारा 1980 में कराए गए सर्वे में बताया गया कि दक्षिण भारत में कुल पत्रकारों में केवल 3 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। मीडिया स्टडीज ग्रुप के 2012 में किए गए सर्वे में भी यह बात सामने आई है कि भारतीय समाचार मीडिया में महिलाओं की संख्या केवल 2.7 प्रतिशत है। भारत में महिलाओं की आबादी करीब 49.65 करोड़ है, जिसमें ग्रामीण महिलाओं की हिस्सेदारी करीब 72.7 प्रतिशत और शहरी महिलाओं की 27.3 प्रतिशत है।


श्रम के क्षेत्र में कुल महिलाओं की हिस्सेदारी 25.7 प्रतिशत है, जिसमें ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी 31 और शहरी महिलाओं की करीब 11.6 प्रतिशत है। 85 प्रतिशत कामगार ग्रामीण महिलाएं या तो निरक्षर हैं या प्राथिमक शिक्षा ही ले सकी हैं । ये आंकड़े ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं के बारे में एक नजरिया तैयार करने के लिए काफी है। जिससे एक आम धारणा यह भी बनती है कि भारतीय समाज की विकास प्रक्रिया और श्रम में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण है। जबकि आकाशवाणी जैसे संचार माध्यम में उनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती है। सर्वे के अनुसार कभी किसी ग्रामीण महिला को आकाशवाणी के कार्यक्रमों में बातचीत के लिए नहीं बुलाया जाता। यह सर्वे बताता है कि आकाशवाणी से एक वर्ष के दौरान 527 कार्यक्रम प्रसारित किए गए और इनमें महिलाओं पर केवल 8 कार्यक्रम प्रसारित हुए। इस तरह से आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से वर्षभर के दौरान प्रसारित हुए कुल कार्यक्रमों में महिलाओं की हिस्सेदारी 1.52 प्रतिशत रही। आधी-आबादी को आकाशवाणी के कार्यक्रमों में इतनी कम हिस्सेदारी आम श्रोता या नागरिक के लिए हैरानी वाली बात हो सकती है लेकिन आकाशवाणी की संचालक संस्था प्रसार भारती के लिए यह चौंकाने वाली बात नहीं है। प्रसार भारती की वार्षिक रिपोर्ट देखे तो उसमें भी ये साफ-साफ दर्ज है कि प्राइमरी चैनल और स्थानीय प्रसारण केंद्र से महिलाओं पर केंद्रित केवल क्रमशः 2.1 और 1.2 प्रतिशत कार्यक्रम ही पेश किए गए।

सर्वे के अनुसार आकाशवाणी पर समय-समय पर बातचीत के लिए बुलाए जाने वाले विशेषज्ञों में भी घोर लैंगिक असमानता है। आकाशवाणी के हिंदी एकांश ने वर्ष 2011 के दौरान विभिन्न विषयों पर बातचीत के लिए 244 लोगों को बुलाया जिसमें केवल 27 महिलाएं थीं। बहरहाल आकाशवाणी में थोड़ी बहुत जो महिलाएं दिखती भी हैं तो वह शहरी पृष्ठभूमि की हैं। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर होने वाली बातचीत में ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं की सुरक्षा को नजरअंदाज कर शहरी महिलाओं को सुरक्षा की समस्या पर केंद्रित रहा।

आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र के हिंदी एकांश में वर्ष 2011 के दौरान बुलाए गए विशेषज्ञों का ब्यौरा

क्रम
कार्यक्रम में बुलाए गए विशेषज्ञ
संख्या
प्रतिशत
1.
पुरुष
217
88.93
2.
महिला
27
11.06

कुल
244
100
(स्रोत सूचना के अधिकार के जरिए मिली जानकारी पर आधारित)


विशेषज्ञ के तौर पर कार्यक्रमों में बुलाई गई महिलाएं पूरी तरह से शहरी पृष्ठभूमि की पढ़ी-लिखी, नौकरी पेशे से संबंधित थी। जिन 27 महिलाओं को आकाशवाणी ने बुलाया उसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि की कोई महिला शामिल नहीं है। (देखें तालिका)

आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र में वर्ष 2011 के दौरान बुलाए गए विशेषज्ञों में शामिल महिलाओं का ब्यौरा
क्रम
महिला विशेषज्ञ
पेशा
1.
डॉ राखी मेहरा
चिकित्सक
2.
अदिति टंडन
पत्रकार
3.
सविता देवी
पत्रकार
4.
डॉ अर्चना सिंह
एकडमिशियन
5.
अन्नपूर्णा झा
वरिष्ठ पत्रकार
6.
नलनी
पर्सनॉल्टी एक्सपर्ट
7.
डॉ लवलीन यडानी
चिकित्सक
8.
रचना पंडित
प्रिंसिपल, डीपीएस
9.
प्रो. सुशीला रामास्वामी
शिक्षक दिल्ली विश्वविद्यालय
10.
सुमन नलवा
डीसीपी दिल्ली पुलिस
11.
शोभना नारायण
नृत्यांगना
12.
विदुषी चतुर्वेदी
महिला कार्यकर्ता, लेखिका
13.
जयती घोष
-
14.
अदिति फडनीस
पत्रकार
15.
मोनिका चंसोरिया
-
16.
उमा शर्मा
-
17.
वर्षा जोशी
जनगणना निदेशक दिल्ली
18.
बरखा सिंह
अध्यक्ष महिला आयोग, दिल्ली
19.
अंजू भल्ला
निदेशक, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
20.
डॉ. रंजना कुमारी
निदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च
21.
डॉ. ऋतु प्रिया
कम्युनिटी मेडिसीन जेएनयू
22.
प्रो. सविता पांडे
जेएनयू
23.
वीणा सीकरी
पूर्व राजनयिक
24.
अनीता सेतिया
उपनिदेशक, शिक्षा विभाग
25.
अंकिता गांधी
जन संसाधन अनुसंधान संस्थान
26.
सुधा सुंदर रमण
महासचिव, एडवा
27.
गार्गी परसाई
पत्रकार
(स्रोत सूचना के अधिकार के जरिए मिली जानकारी पर आधारित)

महिलाओं के साथ भेदभाव के साथ ही यह बात भी उठती है कि महिलाओं की सत्ता संस्थानों में हिस्सेदारी कितनी है। आकाशवाणी को प्रसार भारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी दूरदर्शन के मुकाबले बड़ा संगठन मानते हैं, लेकिन वहां क श्रेणी के पदों पर केवल 14 प्रतिशत महिलाएं है, जबकि दूरदर्शन में 25 प्रतिशत है।

मीडिया स्टडीज ग्रुप के पूर्व में आकाशवाणी पर ही किए गए सर्वे में दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार की हकीकत को उजागर किया था। मसलन कि ऑल इंडिया रेडियो ने वर्ष 2011 के दौरान अनुसूचित जाति के मुद्दे पर सिर्फ एक कार्यक्रम सात नवंबर, 2011 को सरकारी नौकरियों में बढ़ती दलित आदिवासी अधिकारियों की संख्या को प्रस्तुत किया गया। हालांकि इसे केवल अनुसूचित जाति का मुद्दा कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि इसके साथ आदिवासी शब्द भी जुड़ा हुआ है जिनकी जनसंख्या आठ फीसदी से ऊपर है। जबकि, देश की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 15 फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह आकाशवाणी के कार्यक्रम तैयार करने वालों को आदिवासी सवाल नहीं सुझे या उसे समझा नहीं गया, जबकि यह समाज देश में सबसे संकटग्रस्त समाज है जो अपने अस्तित्व पर चौतरफा हमले का सामना कर रहा है। आकाशवाणी ने आदिवासी समस्या को लेकर कोई कार्यक्रम प्रसारित नहीं किए। वहीं देश में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की आबादी 27 फीसदी बताई जाती है और उस समाज के लिए भी सालभर में कोई कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं किया गया।

सार्वजनिक क्षेत्र का लोक प्रसारक होने के नाते उसके राष्ट्रीय कार्यक्रमों का स्वरूप लोकतांत्रिक होना चाहिए। लेकिन कार्यक्रमों का विषय चयन और उसके लिए आमंत्रित मेहमानों की सूची लोक प्रसारक के लोकातांत्रिक होने पर सीधा सवाल खड़ा करते हैं, और सर्वे से स्पष्ट होता है कि अपने लोकतांत्रिक होने की घोषणा की आकाशवाणी खुद ही उल्लंघन कर रही है। प्रसार भारती अधिनियम (1990) में आकाशवाणी के उद्देश्यों में महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और समाज के अन्य निर्बल वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए विशेष उपाय संबंधित मामलों में जागरूकता उत्पन्न करने को खास तौर से जगह दी गई है। लेकिन आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से प्रसारित हुए कार्यक्रमों का अध्ययन यह दिखाता है कि हकीकत में महिलाएं और खासकर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं आकाशवाणी के दायरे से लगभग बाहर हैं और साथ ही दलित, पिछड़े, आदिवासियों को भी पर्याप्त जगह नहीं दी गई।

(मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे पर आधारित रिपोर्ट)

संजय कुमार, आईआईएमसी से प्रशिक्षित पत्रकार हैं। 
दैनिक 'सी एक्सप्रेस' में काम करने के बाद 
फिलहाल मीडिया शोध जर्नल जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं। 
संपर्क snjiimc2011@gmail.com