मंगलवार, 26 जून 2012

आखिर कब मिलेगा बेटियों को जीने का अधिकार

अल्टरनेटिव इकॉनोमिक सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक हर साल देश में छह लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पाती है। वहीं बालक-बालिका का अनुपात (सीएसआर) 2001 के 927 के मुकाबले घटकर प्रति 1,000 बालक की तुलना में 914 पर आ गया है। बाल लिंगानुपात 2011 में 2001 के मुकाबले 13 अंकों की और गिरावट आई है। लिंगानुपात बेहतर नहीं हो पा रहा है। दिल्ली, हरियाण, चंडीगढ़ जैसे राज्यों में लिंगानुपात में गिरावट ज्यादा है, जबकि झारखण्ड, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्यों में लिंगानुपात बेहतर है। लिंगानुपात में भले ही कुछ राज्यों में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन इस सुधार को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। लिंगानुपात में गिरावट का सबसे अहम कारण भ्रूण हत्या है। 1970 के आसपास देश में सरकारी अस्पतालों में भ्रूण परीक्षण की सुविधा शुरू की गई, जिसका उद्देश्य ऐसे भ्रूण को पहचान करना था, जिसे गंभीर बीमारियां हों और उन्हें जन्म से पहले ही मार दिया जाए। इसके बाद इस प्रक्रिया का प्रयोग लिंग परीक्षण में भी होने लगा। वहीं, 90 के दशक के बाद अल्ट्रासाउंड तकनीक के आने से इसमें और तेजी आ गई और कुकरमुत्ते की तरह गली-गली में अल्ट्रासाउंड के सेंटर खुल गए। इन सेंटरों के खिलाफ कानून होने के बाद भी इन सेंटरों पर कार्रवाई नहीं हो पा रही है, जिससे आज भी धड़ल्ले से नए सेंटर खुल रहे है। इस कारण भी कन्या भ्रूण हत्या में कमी नहीं आ रही है। इसी तरह लिंगानुपात का एक कारण हमारे समाज की मानसिकता भी है। आज हम आधुनिक और सभ्य हो गए, लेकिन हमारी मानसिकता आधुनिक नहीं हुई और आज भी हम अपनी बेटियों को मार रहे हैं। जिससे लड़कियों की तादाद कम होती जा रही है। 1914 में जहां भारत में 1000 हजार लड़कियां थी, वहीं आज सिर्फ 914 लड़कियां रह गई है। 2011 में पीसीपीएनडीटी कानून में संशोधन किया गया, जिसके तहत अपंजीकृत सेंटर चलाने वालों पर 3 वर्ष से 5 वर्ष तक कारावास और 10 हजार से 50 हजार रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है। पंजीकृृत सेंटरों की संख्या 41,228 है, जबकि हकीकत में इन सेंटरों की तादाद लाखों में है। कानून में संशोधन के बाद भी स्थिति में कुछ खास बदलाव नजर नहीं आता है। आज भी कभी किसी गांव, तो कभी किसी शहर से कन्या भ्रूण हत्या खबर मिल ही जाती है। वहीं केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों द्वारा लाडली योजना, लक्ष्मी योजना, बेटी बचाने वाले को एक लाख का इनाम जैसी कितनी योजनाएं चलाई जा रही हैं। दूसरी ओर, सामाजिक संगठनों की काफी कोशिशों के बावजूद भी कन्या भ्रूण हत्या खत्म नहीं हो रही है। भ्रूण हत्या रोकने और लिंगानुपात को बेहतर करने के लिए जरूरी है कि हम बेटियों को उनका जीने का अधिकार दें और अपनी मानसिकता को भी बदले, ताकि बेटे और बेटी का फर्क खत्म हो सके। इसके साथ ही पीसीपीएनडीटी कानून के तहत अल्ट्रासाउंड सेंटरों पर सख्त कार्रवाई की जाए। सरकार को योजनाओं के साथ ही सामाजिक अभियानों पर भी जोर देना चाहिए।

शुक्रवार, 15 जून 2012

दसवीं बोर्ड का रिजल्ट रिकॉर्ड फिर भी हिंदी हुई फेल

अभी हाल ही में यूपी बोर्ड दसवीं का रिजल्ट आया, जिसमें 83.75 फीसद छात्र पास हुए। जो एक रिकॉर्ड बताया जा रहा है। वहीं इस बार हिंदी में सवा तीन लाख छात्र फेल हुए है। इस बार दसवीं की परीक्षा में कुल 35 लाख 59 हजार छात्रों ने भाग लिया था। हिंदी में इतने छात्रों का फेल होना यह साबित करता है कि हम चाहे हिंदी का कितना भी गुणगान कर लें, लेकिन सच यह है कि आज हम बच्चों को अंग्रेजी सीखने के चक्कर में हिंदी की उपेक्षा करते जा रहे है। आज हम चाहते है कि हमारा बच्चा पहली कक्षा से अंग्रेजी बोले। इस होड़ से हिंदी भाषा से कहीं न कहीं बच्चे दूर होते जा रहे है। वहीं आज स्कूलों में भी हिंदी पर इतना जोर नहीं दिया जा रहा है। दूसरी ओर हम बच्चों को अंग्रेजी सीखने के लिए ट्यूशन से लेकर कोंचिग तक करवाते है, लेकिन हिंदी पर इतना जोर क्यों नहीं दिया जाता है। आज अंग्रेजी के बिना कैरियर नहीं है। इस कारण अंग्रेजी की जरूरत को नकार नहीं जा सकता, लेकिन किसी भाषा की उपेक्षा कर दूसरी भाषा को सीखना भी कितना सही है। अंग्रेजी सीखने से हम आधुनिक हो जाते है, लेकिन अंग्रेजी नहीं आती तब हम पिछड़े माने जाते है। आज अंग्रेजी को हमने ऐसी भाषा बन दिया है कि अंग्रेजी के सिवा कोई भाषा ही नहीं रह गई है। वहीं समय-समय पर हिंदी को लेकर बहस चलती रहती है। तो कभी आईआरएस की सर्वे में टॉप टेन में हिंदी के अखबारों के नाम आने से हिंदी की स्थिति को तय किया जाता है। भले हिंदी के अखबार पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी हो, लेकिन हम किस हिंदी अखबारों की बात कर रहे है, जो आज हिंग्लिश भाषा को बढ़ावा दे रहे है। इन अखबारों के सर्वे से हिंदी की स्थिति को तय नहीं किया जा सकता, इन सर्वे से केवल मार्केट को तय किया जा सकता है। हम समझ सकते है कि दसवीं में हिंदी में सवा तीन लाख बच्चे फेल हो जाते है। यह चिंतनीय विषय है , क्योंकि इन बच्चों से ही भविष्य में हिंदी की स्थिति तय होगी। जब इतने बच्चे फेल होंगे, तो भविष्य में हिंदी को लेकर चिंता होना वाजिब है।