– संजय कुमार बलौदिया
पिछले एक दशक में पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों का तेजी से विस्तार हुआ
है। पत्रकारिता के क्षेत्र को जिस तरह ग्लैमर्स की दुनिया बताकर प्रचारित किया जा
रहा है। इससे छात्र-छात्राओं का पत्रकारिता की ओर रुझान तेजी से बढ़ा है। इसी वजह
से आज कई तरह के मीडिया संस्थान सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री कोर्स चल रहे है।
ये संस्थान एंकर, रिपोर्टर और कैमरामैन बनाने के लिए सर्टिफिकेट और डिप्लोमा भी बांट
रहे हैं। पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और बदलती तकनीक के कारण ही इस क्षेत्र में
प्रशिक्षण को जरूरी समझा गया। प्रशिक्षण का सामान्य अर्थ है कि किसी भी काम को और
बेहतर तरीके से करना है। पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षण शब्द को सिर्फ तकनीक
अर्थों तक ही समेट दिया गया है। इस वजह से ऐसा लगता है कि जैसे पत्रकारिता का
प्रशिक्षण ही पत्रकारिता है।
अभी हाल ही में विश्व पुस्तक मेले के दौरान पत्रकारिता के कुछ
छात्र-छात्राओं और अध्यापकों को देखा जो मीडिया लेखन, समाचार लेखन, रेडियो लेखन
जैसी किताबें खोज रहे थे। उन्हें काफी समझाने की कोशिश की इस प्रकार की किताबों से
पहले पत्रकारिता को लेकर एक समझ बनाने की जरूरत है। लेकिन शायद वह समझना ही नहीं
चाहते थे
और वह इन किताबों को खोजते हुए आगे बढ़ गए।
दरअसल बात यह है कि बीते एक दशक में जिस तरह से पत्रकारिता के क्षेत्र को
प्रचारित किया गया है। उससे अब छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता का
प्रशिक्षण/पाठ्यक्रम ही पत्रकारिता लगने लगा है और वह पाठ्यक्रम की किताबें पढ़कर
ही पत्रकारिता कर लेना चाहते है। ये छात्र-छात्राएं खबरों को जानना-पहचानना और खोज
नहीं चाहते हैं। इनके अध्यापक भी सिर्फ छात्र-छात्राओं को इतना ही तो सिखाना चाहते
है कि समाचार कैसे लिखे, रेडियो के लिए कैसे लिखे, पैकेज कैसे काटें, एकरिंग कैसे
करें या फिर रिपोर्टिंग संबंधी कुछ जानकारी भी दे देते हैं। इससे ज्यादा हुआ तो
टाइपिंग और पेज डिजाइनिंग सीखा दी जाती है। इसके बाद वह एक पत्रकार बन जाता है और
किसी मीडिया संस्थान में 5 डब्ल्यू 1 एच का प्रयोग करते हुए खबरें लिखता रहता है
या पैकेज काटता रहता है। वह इस फार्मूले से आगे बढ़कर खबर की पहचान नहीं कर पाता
है और ना ही किसी प्रकार का प्रयोग कर पाता है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षित पत्रकार को तकनीकी प्रशिक्षण तो
मिल जाता है, लेकिन इस पेशे के लिए जो
सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समझ बननी चाहिए, वह नहीं बन पाती है। जिससे आज
के पत्रकार सामाजिक सरोकारों से दूर होते नजर आते हैं। तकनीक प्रशिक्षण के महत्व को
नकारा नहीं जा सकता, लेकिन इसके दूसरे पक्ष को अनदेखा करना भी सही नहीं है। इसकी
एक बड़ी वजह पत्रकारिता के सभी संस्थानों का एक जैसा पाठ्यक्रम/प्रशिक्षण है और बाजार
का दबाव भी है। जिस वजह से आज इस तरह के पत्रकार तैयार किये जा रहे हैं।
पत्रकारिता को चाहकर भी पाठ्यक्रम के दायरे नहीं समेटा जा सकता। लेकिन अब स्थिति
ऐसी हो गई कि पत्रकारिता के प्रशिक्षण/पाठ्यक्रम को ही पत्रकारिता समझा जाने लगा
है। इससे कहीं न कहीं पत्रकारिता लेखन सिमटता नजर आ रहा है। पत्रकारिता जैसे
क्षेत्र के लिए यह स्थिति बहुत खतरनाक है। यह स्थिति आगे आने वाली पत्रकार पीढ़ी
के लिए बेहद खतरनाक होगी।