रविवार, 4 दिसंबर 2011

आधुनिक भारत में किसान हाशिए पर

कुछ समय पहले राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट आई जिसके अनुसार पिछले 16 वर्षों में 2.5 लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी कर ली है। वहीं महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक में किसानों की दशा ओर भी खराब है। मध्यप्रदेश में हर दिन 4 किसान खुदकुशी कर रहे है। इन आंकडों और रिपोर्ट ने सरकार के कार्यक्रम भारत निर्माण पर सवाल खड़े कर दिये है। भारत जैसे देश में जहां 60 फीसदी लोग आज भी कृषि पर आश्रित है। कृषि क्षेत्र की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत निर्माण कहां हो रहा है।
कृषि क्षेत्र के सुधार के लिए 90 के दशक में हरित क्रांति को अपनाया गया था। उसके बाद कुछ वर्षों तक कृषि क्षेत्र में सुधार हुआ। लेकिन इस पद्धति में रसायनिक उर्वरकों का और अधिक जल का प्रयोग किया गया । जिसके कारण आज भूमि की उर्वरता नष्ट हो गई है।
वहीं दूसरी ओर कृषि को व्यवसाय बनाने के प्रयास हो रहे है । इसके साथ ही किसानों की भूमि का अधिग्रहण करके औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। किसानों को कृषि क्षेत्र से दूर किया जा रहा है।
वैश्वीकरण के बाद नकदी फसलों को बढ़ावा दिया गया । इन नकदी फसलों पर खर्च अधिक होता है। जिसके कारण किसानों को अधिक कर्ज लेना पड़ता है। वहीं अगर फसल किसी कारण से बर्बाद हो जाती है तो किसान के पास कर्ज चुकाने का कोई रास्ता नहीं होता है। तो वहीं एक अन्य कारण फसल बीमा में धोखाधड़ी भी है। किसानों को फसल बीमा भी पूरा नहीं मिल पाता है। इस कारण किसानों को खुदकुशी करने को मजबूर होना को पड़ता है।वैसे भी भारत की कृषि मानसून पर निर्भर होती है।
वहीं हम पश्चिमी देशों से तुलना करने लग जाते है। जबकि पश्चिमी देशों की कृषि मशीनों और भारी अनुदान पर टिकी हुई है। वहीं भारत में कृषि क्षेत्र पर अधिक बजट भी खर्च नहीं किया जाता है। इसके साथ ही औद्योगिकीकरण और निजीकरण के कारण कृषि हाशिए पर चली गई है।
आज जीडीपी में कृषि का अनुपात 14.2 फीसदी रह गया है। इसके साथ ही कृषि की वृद्धि दर भी पिछले वर्ष की तुलना में 5.4 से गिरकर 3.2 फीसदी हो गई है। कृषि मंत्रालय का एक अध्ययन जिसमें बताया गया है कि किसानों को विकल्प मिले तो वह कृषि को छोड़ दे।
अब सवाल यह उठता है कि किसानों की स्थिति में सुधार नहीं किया गया तो देश को खाद्य संकट से गुजरना पड़ेगा। हमें विकास पर जोर देना चाहिए लेकिन हमें टिकाऊ विकास पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। टिकाऊ विकास के लिए हमें गैर-रसायनिक या जैविक कृषि पर जोर देना होगा ताकि कृषि की लागत में कमी आए। इससे किसानों को भी लाभ होगा। इसके साथ ही फसलों के समर्थन मूल्यों में वृद्धि की जानी चाहिए। जिससे किसानों को कृषि के लिए प्रोत्साहित किया जा सके ।

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

उभरते भारत में बढ़ती बाल मजदूरी

उभरते भारत में बढ़ती बाल मजदूरी
भारत को आर्थिक महाशक्ति के रूप में देखा जा रहा है। वहीं भारत आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए आर्थिक विकास दर को बढ़ाने पर जोर देता रहता है। हमें यह भी देखना होगा कि यह आर्थिक विकास कितने लोगों को लाभान्वित करता है। भारत के आर्थिक विकास पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट ने सवाल खड़े कर दिये है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 215 करोड़ बाल मजदूर है। वहीं अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट के अनुसार भारत बाल मजदूरी के मामलों में सबसे आगे है।
 भारत में बाल मजदूर बीड़ी, ईंट, चूड़ी, ताले, माचिस जैसे 20 उत्पादों के निर्माण में लगे है। इसके साथ ही जबरन बाल मजदूरी करवाने में भी भारत  शीर्ष पर है। अफ्रीका, एशिया, और लातिन अमेरिका के 71 देशों में बाल मजदूर ईंट, बॉल से लेकर पोर्नोग्राफी तथा दुर्लभ खनिजों के उत्पादन जैसे कार्यों से जुड़े है। विश्व में सबसे अधिक उत्पाद भारत, बांग्लादेश और फिलीपींस में बनते है।
 हमारे देश में बाल मजदूरी को रोकने के लिए कई कानून बनाये गये है। इसके साथ ही पिछले वर्ष से राइट टु ऐजुकेशन के तहत 6 से 14 तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा भी दिये जाने की व्यवस्था की गई है। इसके वाबजूद भी बाल मजदूरी में कमी नहीं आ रही है। तो इसके पीछे मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या और बच्चों से कम पैसों में अधिक काम लेना भी है।
जिन बच्चों के हाथों में पेन, पैंसिल और किताबें जैसी चीजें होनी चाहिए, उन बच्चों के हाथों में माचिस, पटाखे जैसे उत्पादों को थमा दिया जाता है। भारत जैसे आर्थिक शक्ति वाले देश की हकीकत ऐसी होगी तो अन्य देशों की स्थिति के बारे में क्या कहा जा सकता है।
 बाल मजदूरी से बच्चों का भविष्य ही नहीं देश का भविष्य भी बर्बाद हो रहा है। जब बच्चों को बाल मजदूरी में झोंका जायेगा तो वह कैसे पढ़ेगें और इनका भविष्य क्या होगा। इन बच्चों को क्यों बाल मजदूरी करनी पड़ रही है। यदि शिक्षा सुधार और बाल मजदूरी से संबंधित कानून के वाबजूद भी बच्चों का बचपन छीन रहा है। तो इसके लिए हमारी सरकार की नीतियां और बढ़ती जनसंख्या जिम्मेदार है।

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

महात्मा गांधी जयंती के अवसर पर दिया व्याख्यान- सच्चिदानन्द सिन्हा

महात्मा गांधी जयंती के अवसर पर दिया व्याख्यान- सच्चिदानन्द सिन्हा
·         महात्मा गांधी का नाम अराजकवाद के साथ जोड़ना कुछ अटपटा-सा लग सकता है। लेकिन यहां अराजकवाद शब्द का प्रयोग इसके दार्शनिक-राजनीतिक अर्थ में किया गया है। इस अर्थ में जब महात्मा गांधी हिन्द स्वराज में अदालतों, अस्पताल, संसद और यहां तक कि रेल यातायात तक को अवांछित बताते हैं तो अराजक स्थिति की भावना के अत्यधिक करीब लगते हैं
·         लेकिन पश्चिमी दुनिया में, जहां लोग इस सभ्यता के दंश को सीधा झेल रहे हैं अराजकवादी रूझान पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। शताब्दी के साठ के दशक में यूरोप और अमेरिका के छात्र आन्दोलनों में पूरी व्यवस्था को नकारने का एक रूझान आया था।
·         आधुनिक औद्योगिक मनुष्य का पूरा जीवन चक्र एक आटोमैटिक मशीन जैसा बनता जा रहा है। इसमें आदमी महज पुर्जा है- एक समयबद्ध विशाल नागरीय घड़ी का। आधुनिक सभ्यता और इसकी विविध संस्थाएं जितना ही अधिक यांत्रिक और उपभोक्तावादी जरूरतों को पूरा करने मे सक्षम होती गयी हैं, उतना ही भावनात्मक स्तर पर एक निःसारता का भाव भी पैदा हुआ है।
·         आधुनिक औद्योगिक क्रान्ति का अगुआ ब्रिटेन के एक कवि टी.एस.इलियट ने आज से लगभग एक शताब्दी पहले, जब प्रथम विश्वयुद्ध के घोर नरसंहार के बावजूद, संसार में इस औद्योगिक सभ्यता का यशोगान हो रहा था, अपने विख्यात काव्य वेस्ट लैंड में समाज के सारे क्रियाकलापों को बंजर के रूप में पेश किया था।
·         औद्योगिक क्रान्ति के बाद यूरोप में मजदूर वर्ग की स्थिति को सुधारने के जो प्रारंभिक प्रयास हुए- जिन्हें कार्ल मार्क्स ने यूटोपियन कहा था उनका मूल उद्देश्य विकास की इस धारा से निकल समाज को नये आधार पर खड़ा करना था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पीछे हिटलर की लेबेन्स राउम (जीवन के लिए ठौर) का सिद्धान्त नई औद्योगिक व्यवस्था के लिए संसाधनों की इसी आक्रामक तलाश की आभिव्यक्ति थी।
·         कार्ल मार्क्स और उनके समकालीन अराजकवादी दोनों ही राज्य को नजरअंदाज कर समाज में किसी बदलाव को असंभव मानते थे। दोनों का उद्देश्य था राज्य व्यवस्था का विघटन ।प्रूधां, जो अराजकवादी आन्दोलन का प्रथम प्रभावशाली नेता था, किसी तरह के हिंसक आंदोलन और राजसत्ता दोनों का विरोधी था।
·         सर्वाधिक प्रभावशाली अराजकवादी नेता बाकुनिन जो मार्क्स का समकालीन था और मजदूर संगठनों के प्रथम अंतरराष्ट्रीय में कुछ समय तक उसका सहभागी भी था, हिंसक क्रांति से पूंजीवाद और राज्य व्यवस्यथा दोनो को खत्म करना चाहता था। मार्क्सवादी प्रायः सत्ता में आए और अंततः नई औद्योगिक व्यवस्था के मूल्य (जो पूंजीवादी उपभोक्तावादी थे) और ढांचे को मजबूत करने में ही सफल रहे । रूस और चीन में, जहां इनको बड़ी सफलता मिली, औद्योगिकरण तो चरम पर पहुंचा लेकिन साम्यवाद, समता और स्वाधीनता के सारे सपने विलीन हो गए।
·         इस दिशा में प्रिंस क्रोपोट्किन अराजकवादियों के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तकार हुए। वे जीव जगत और समाज, दोनों के गहन अध्येता थे । अपनी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक म्युचुअल एड में उन्होंने यह दिखलाया कि पशु जगत से लेकर मनुष्य के विकास तक के सभी स्तर पर मानव संस्थाएं अपना अस्तित्व पारस्परिक सहयोग से ही बचाए रख सकीं।
·         आधुनिक अराजकवादी, जिनमें कुछ अपने कुछ अपने को ग्रीन अनार्किस्ट कहते हैं तो कुछ अनार्किस्ट प्रिमिटिविस्ट, बौद्धिक रूप से बहुत प्रखर हैं, लेकिन इनकी शक्ति व्यवहार में बहुत ही कम है। आर्कियोलाजी एवं ऐन्थ्रोपोलाजी का गहन अध्ययन कर यह स्थापित करने की कोशिश की है कि चालू अवधारणा कि आदि मानव का जीवन पोषक तत्वों की दृष्टि से दीनता का था पूरी तरह भ्रामक है। उनकी मान्यता है कि आदि मानव जो आखेट और फल-मूल पर आश्रित थे, औसतन महज चार-पांच घंटे के प्रयास से आज की अपेक्षा अधिक पौष्टिक आहार प्राप्त कर लेते थे ।
·         वे अद्यतन अध्ययनों का सहारा लेकर यह भी प्रतिपादित करते हैं कि मानव के पतन की शुरूआत आज से लगभग दस हजार वर्ष पहले हुई, जब लोगों ने कृषि और पशुपालन शुरू की।जॉन जेरजन, जिन्हें बहुत लोग वर्तमान समय का सबसे महत्वपूर्ण अराजकवादी चिंतक मानते है, एक लेख पोस्ट स्क्रिप्ट टू फ्यूचर प्रिमिटिव रिः द ट्रांजिशन में जो उनकी पुस्तक रनिंग आन एम्पटीनेस में संकलित है, वर्तमान सभ्यता के कुछ पहलुओं पर वैसी ही बातें करते है जैसी बातें गांधी के हिन्द स्वराज में हैं।
·         सभ्यता के पहले बीमारियों का अस्तिव लगभग नगण्य था। औद्योगिकरण और कारखानों को एकाएक खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इनका सफाया पूरी शक्ति एवं विद्रोही तेवर से होना चाहिए ।
· अब सभ्यता के संबंध में हिन्द स्वराज में गांधी जी के विचार को देखे ।
पाठक अब तो आपको सभ्यता की बात करनी होगी ।आपके हिसाब से सभ्यता बिगाड़ करने वाली है।
   सम्पादक मेरे हिसाब से ही नहीं,बल्कि अंग्रेज लेखकों के हिसाब से भी यह सभ्यता बिगाड़ करने वाली है।एक लेखक ने सभ्यता ,उसके कारण और उसकी दवा नाम की किताब लिखी है। उसमें साबित किया गया है कि यह सभ्यता एक तरह का रोग है।

·         पहले लोग खुली हवा में अपने को ठीक लगे उतना ही काम स्वतन्त्रता से करते थे । पहले लोगों को मारपीट कर गुलाम बनाया जाता था, आज लोगों को पैसे और भोग का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। जॉन जेरजन इस पतन की शुरूआत कृषि क्रान्ति में मानते है,जो आज से  लगभग दस हजार वर्ष पहले हुई,जबकि महात्मा गांधी आधुनिक पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता में ।
·        आधुनिक अराजकवादी, जो अपने को अनार्किस्ट प्रिमिटिविस्ट कहते हैं, इस व्यवस्था का अंत कृषि व्यवस्था, जिसे वे डोमेस्टिकेशन कहते है, को खत्म करने में देखते हैं जबकि गांधीजी पारम्परिक कृषि और पारम्परिक हस्त उद्योगों पर आधारित विकेन्द्रित और आत्म निर्भर ग्रामीण समाज में इससे मुक्ति देखते हैं।इस तरह जरूरत की सभी वस्तुओं के लिए स्थानीय संसाधनों के विकास पर जोर देते हैं जो दूरदराजसे विनिमय को अनावश्यक बना दे । जीनेवाले हमारे इलीट लोगों की समझ में आज भी जो बात नहीं आ रही है वह महात्मा गांधी ने अपने युवाकाल में तीन महादेशों के अनुभव से समझ लिया था। जो बात महात्मा गांधी की सोच को अराजकवादियों की या तथाकथित यूटोपियाई समाजवादियों की सोच के नजदीक लाती है, वह शायद मनुष्य मात्र के अवचेतन में दबी उन्मुक्त जीवन की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है।
·        जॉन जेरजन अमेरिकी चिंतक हैं और वे स्वयं जिस राज्य ओरेगन से आते हैं, वहां की आबादी छोटी है और वह विशाल वनों का प्रदेश है। इसलिए उनकी कल्पना में हंटिंग-गैदरिंग (आखेट और कन्दमूल पर आश्रित जीवन) जैसा उन्मुक्त जीवन आज भी संभव लग सकता है। भारत जैसे देश में, जहां छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में सवा अरब लोगों का जीवन का आधार ढूंढ़ना होता है, वहां आखेट और फल-मूल संग्रह पर आधारित जीवन की क्या संभावना हो सकते है। शायद इस सीमा से वे भी परिचित हैं । इसीलिए जहां वे संक्रमण की बात करते हैं, वैकल्पिक ढंग की कृषि की ही बात करते हैं।
·         अराजकवादी इस तथ्य की ओर ध्यान खींचने की कोशिश करते हैं कि कृषि की तरफ संक्रमण आबादी के दबाव से नहीं हुआ बल्कि कृषि और पशुपालन की ओर संक्रमण से जो जीवन की स्थितियां पैदा हुईं और भोजन की उपलब्ध बढ़ी, उसी की वजह से अचानक आबादी का तेज संक्रमण हुआ। आधुनिक औद्योगीकरण ने धरती और इसके संसाधनों पर बोझ घटाने की बजाय लगातार बढ़ाया ही है। भूमि की उपज को अखाद्य वस्तुओं जैसे रबर या एथनाल में तब्दील किया जा रहा है। कृषि योग्य भूमि को अधिग्रहित कर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। औद्योगीकरण से भूमि पर आबादी का बोझ घटता है, हकीकत में आबादी का बोझ बढ़ता है क्योंकि आदमी की जरूरतें बढ़ाई जा रही हैं।
· लेकिन आधुनिकता की फैन्टेसी में
· मानव स्वभाव में अंतर्निहित सामुदायिकता विषमतामूलक समाज के विकास के क्रम में उसके अचेतन में दबा दी गयी है। लेकिन विशेष अवसरों पर यह फिर उसकी चेतना में उभर आती है। गांधीजी के जीवन में इस तरह का बदलाव रस्किन की पुस्तक अन टू दिस लास्ट पढ़ने के बाद आया और उसी क्षण से वे साम्यवादी बन गये गांधीजी के अनुसार सिद्धान्त रूप में पुस्तक का निष्कर्ष थाः
1. व्यक्ति की भलाई सबों की भलाई में निहित है
2. एक वकील के काम का वही महत्व है जो एक नाई के काम का, क्योंकि सबों को अपने काम से आजीविका पाने का अधिकार है।
3. श्रम का जीवन, यानी एक हलवाहे का जीवन जो जमीन जोतता है एवं एक दस्तकार का जीवन जीने योग्य है।
· गांधीजी ने सामुदायिक श्रम पर आधारित जीवन की शुरूआत अपनी पत्रिका इन्डियन ओपिनियन के प्रकाशन की नयी व्यवस्था से की ।सामुदायिक जीवन का इससे भी बड़ा प्रयोग टॉल्सटॉय फार्म का था । मल-मूल आदि के निस्तार की ऐसी व्यवस्था की गयी, जिसमें पर्यावरण शुद्ध रहे और साथ ही उपयोगी खाद तैयार हो जाय, जो सामुदायिक कृषि के लिए उपयोग में आये।
· 1960 के दशक में फ्रांस से शुरू हो यूरोप और अमेरिका में छात्रों और बाद में इसके समर्थन में जुड़े मजदूरों का निषेध पक्ष तो प्रखर था जिसने औद्योगिक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों (प्रतिस्पर्धा एवं युद्ध) के विनाशकारी चरित्र को उजागर किया, लेकिन किसी विकल्प के अभाव में उस समय का विद्रोही युवा फिर पुराने ढांचे को ही कबूल करने पर मजबूर हो गया।
· वर्तमान औद्योगिक सभ्यता हर स्तर पर मजदूरों के शोषण से लेकर पर्यावरण के विरूद्ध अनियंत्रित आक्रमण पर आधारित है। औद्योगिक क्रान्ति के काल में हुए उनके बदलाव के संबंध में स्वयं कार्ल मार्क्स के विचार जो उन्होंने अपनी पुस्तक पूंजी के प्रथम भाग में प्रस्तुत किया है, काफी सहायक है। मार्क्स पहले औजार (टूल) से वह काम कराता है जो पहले श्रमिक द्वारा उन्हीं औजारों से किया जाता था। इस पूरी प्रकिया के तीन भाग हैं –चालक, ऊर्जा-संचालक (ट्रांसमीटर) और औजार (टूल)।
· हस्तकला को छोड़ कर प्रायः दूसरे सभी क्षेत्रों में मनुष्य चालक की भूमिका से बाहर हो गया है। सारे के सारे जीवाश्म ईंधन कभी के गड़े खजाने हैं, जिन्हें आज न कल खत्म होना है। इसके बावजूद तेज विकास और भारी मुनाफे की इच्छा ने इन ईंधनों के उपयोग को सीमित करने की बजाय लगातार बढ़ाया ही है।
· इधर लगातार बढ़ रही महंगाई के पीछे यह एक मूल कारण है। कोयला, तेल आदि स्त्रोतों पर ऊर्जा के लिए हमारी निर्भरता और इनका महंगा होते जाना इसके मूल में है। कोयला या एथनॉल के माध्यम से जैविक पदार्थों की ईंधन-गैस या तेल में परिवर्तित किया जाना संकेत हैं उस दिशा का, जिसमें ऊर्जा के स्त्रोतों के सिकुड़न से महंगाई और अंतत अभाव बढ़ता जा रहा है। प्रायः तेल के महंगा होने के पीछे ओपेक जैसे तेल उत्पादक देशों के संगठन को दोषी ठहराया जाता रहा है जबकि हकीकत है कि ओपेक के देश कहीं न कहीं तेल की उपलब्धता के सिकुड़न को ही प्रतिबिंबित करते हैं। कुल मिलाकर हालत यह है कि 1960 के दशक तक के एक डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर आज कच्चा तेल सौ डॉलर के आस-पास पहुंच गया है आगे जैसे-जैसे ऊर्जा के ये स्त्रोत  विरल होते जाएंगे इनकी महंगाई भी बढ़ेगी ।
· अर्थ जगत का वह रूझान, जिसे अर्थशास्त्री स्टैगफ्लेशन कहते हैं – यानी मंदी और महंगाई का साथ-साथ होना –इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। आमतौर से माना जाता है कि आर्थिक मंदी के काल में वस्तुओं की कीमतें गिरेंगी, क्योंकि बेरोजगारी से लोगों की क्रय शक्ति के हास से उनके खरीददार घटेंगे । लेकिन स्टैगफ्लेशन में मंदी के साथ –साथ महंगाई भी बढ़ती है। दरअसल यह स्थिति लगातार गहराते ऊर्जा संकट का संकेत है। लोगों की क्रय शक्ति चाहे कितना ही कम हो, अगर वस्तुओं के उत्पादन में लगने वाली ऊर्जा की कीमत लगातार बढ़ेगी तो इससे उत्पादों की कीमत कुछ न कुछ बढ़ेगी ही।
· बाइसवीं सदी आते-आते कोयला, तेल आदि इतने महंगे हो जाएंगे की अक्षय ऊर्जा स्त्रोत सूर्य पर निर्भर फूडचेन –जिसमें प्रकाश संश्लेषण से वनस्पतियों और शैवाल से शुरू हो संसार के सभी जीव-जंतु जीवन का आधार पाते है- और इससे प्राप्त ऊर्जा के आधार पर चलने वाले उद्योग-धंधे स्पर्धा में कोयला तेल आदि पर निर्भर उद्योगों से आगे निकल जाएंगे । ज्ञातव्य है कि विशेष तरह के हस्त कौशल से निर्मित वस्तुएं आज भी कारखानों में बनी वस्तुओं से बेहतर होती है और प्रतिस्पर्धा में टिकी हुई हैं । हमारी पारंपरिक कृषि भी, मूलतः बैलों, मानव श्रम और जैविक खादों पर निर्भर है, खाद्यान्न उत्पादन सस्ते दर पर करती है और पश्चिमी देशों के मशीनीकृत कृषि के खाद्यान्नों के मुकाबले खड़ी है, जबकि पश्चिमी देशों की कृषि को भारी अनुदान पर टिकाए रखा जाता है।
· उनका समाज का सपना अराजकवादियों से मिलता-जुलता था, लेकिन वे अधिक व्यावहारिक थे और जहां संभव हुआ नये समाज के मॉडल के रूप में छोटे स्तर पर निर्माण भी करते चले।     


शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

गरीबी का कैसा पैमाना

गरीबी का कैसा पैमाना
हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद से ही गरीबी की समस्या बनी हुई है। आज छह दशक के बाद भी हालात में कुछ खास बदलाव नहीं आया है। छह दशक में 11 पंचवर्षीय योजनाएं पूरी हो चुकी है। हमने 90 के दशक में नई आर्थिक नीति  को अपनाया । आज भारत को अमेरिका जैसे देश उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में देखते है। लेकिन देश में गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा जैसी समस्याएं बनी हुई है। देश में विकास हुआ है। वहीं इस विकास ने अमीरी व गरीबी के अंतर को बढ़ावा ही दिया है। हमारे देश में आर्थिक विकास को विकास का पैमाना माना जा रहा है जो कि गलत है। देश में 6 दशक में भी हम अपने देश में गरीबों की सही संख्या नहीं पता लगा सके तो इससे हमारी नीतियों की खामियों का पता चलता है।
 देश में गरीबों की संख्या पता लगाने के लिए न जाने  कितनी कमेटियां बनाई गयी। इन कमेटियों के आंकड़ों में भी  काफी अंतर है ।जब तक गरीबों की सही संख्या का पता नहीं लगेगा हम गरीबों तक सुविधाएं कैसे पहुचा पायेगें। लेकिन योजना आयोग ने अनाज में सब्सिडी कम करने के लिए सुरेश तेदुंलकर समिति की सिफीरिशों को आधार बनाया है जिसमें शहरों में 32 रूपये व गांवों में 26 रूपये कमाने वालों को गरीबों की संख्या से बाहर रखा है।  इसी प्रकार एनसी कमेटी के अनुसार 50 फीसदी , तेदुंलकर समिति के अनुसार 37 फीसदी है इसके साथ ही अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी के अनुसार 77 फीसदी लोग गरीबी  रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे है। योजना आयोग के अनुसार गरीबों की संख्या 27 फीसदी है। अब यदि योजना आयोग से पूछा जाये कि वह तेदुंलकर समिति की रिपोर्ट कोअनाज की सब्सिडी को कम करने को आधार बना रही है तो उसे तेदुंलकर समिति की उस रिपोर्ट को भी मानना चाहिए जिसमें वह गरीबों की संख्या 37 फीसदी बताई गई है। छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान गरीबी निधार्रण का पैमाना खाने की खुराक को बनाया गया था। लेकिन आज गरीबी के निधार्रण में शिक्षा, स्वास्थ्य ,खाना सभी को आधार बनाया जा रहा है। सरकार एक तरफ जहां 15 रूपये में जनाहार यानि एक समय का खाना देती है। वहीं 26 गांवों में और 32 रूपये शहरों में  शिक्षा, स्वास्थ्य ,खाना कैसे मिल सकता है।यह गरीबों से मजाक नहीं तो और क्या है। वहीं देश में मंहगाई के दौर में पिछले एक वर्ष में दूध में 26 फीसदी, प्याज में 100 फीसदी, तेल में 23 फीसदी की वृद्धि हुई है। ऐसे में हम कैसे विकास की बात कर रहे है। जहां एक व्यक्ति 15 रूपये पानी की बोतल पर खर्च करता है वहीं एक व्यक्ति दूषित पानी पीने को मजबूर है। सरकार गरीबों की संख्या को घटाकर सब्सिडी को घटाकर आम आदमी पर और मंहगाई की मार करने जा रही है।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

हिंदी की प्रगति या दुर्गति

हिंदी की प्रगति या दुर्गति
हर वर्ष 14 सितम्बर को विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी दिवस पर सरकारी कार्यालयों और अन्य स्थानों पर हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है। हिंदी पखवाड़ा  में भी हिंदी की धज्जियां उड़ाई जा रही है। आज हिंदी दिवस को भी हम परम्परा की तरह मनाकर छोड़ देते है। हिंदी को 1949 में राजभाषा का दर्जा दिया गया था। आज हम हिंदी को राष्ट्रभाषा भी कहते है।लेकिन छह दशकों के बाद  भी हिंदी की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। हिंदी से जुड़ी संस्थाओ की हकीकत किसी से छुपी नहीं है। हिंदी बोलने वालों की संख्या चाहे ज्यादा हो।
आज आधुनिकता के दौर में हिंग्लिश भाषा उभर कर सामने आ रही है। जो पूर्णतः न तो हिंदी है और न अंग्रेजी ।इस हिंग्लिश भाषा ने मानक हिंदी के सामने समस्याएं खड़ी कर दी है। आज हिंग्लिश भाषा ही समाचार पत्रों ,मैगजीन,न्यूज चैनलों द्वारा प्रयोग की जा रही है। आज का युवा वर्ग भी इस हिंग्लिश भाषा  का प्रयोग कर रहा है।
हम जानते है कि हिंदी का विकास कैसे हुआ है। हिंदी ने उर्दू,फारसी,अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों को आत्मसात् करके विकास किया है। आज हमें सोचना पड़ेगा कि यह हिंग्लिश भाषा हिंदी को विकास की ओर ले जा रही है। या दुर्गति की ओर ले जा रही है । आज हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी  शब्दों की भरमार है। स्कूलों में भी हिंदी पर इतना जोर नहीं दिया जाता है। आज सभी को इंग्लिश सीखनी है ताकि रोजगार मिल जाए। अंग्रेजी सीखने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अपनी भाषा को भी किसी भाषा से कम आंकना भी सही नहीं है।
आज इंग्लिश सीखाने के लिए सैकड़ो संस्थान खुल रहे है। 1 दशक के बाद इंग्लिश की ही तरह हिंदी सीखाने वाले संस्थानों भी खुलने लगेगें। हमारी हिंदी भाषा को विदेशों में भी पढ़ाया जा रहा है जबकि हमारे यहां पर स्कूलों गीता पढ़ाने पर राजनीति की जाती है। हमने अपनी मानसिकता ऐसी बना ली है कि हम हिंदी बोलेंगे तो लोग पिछड़ा कहेंगे और अंग्रेजी बोलने से आधुनिक कहेंगे। हम हिंदी से पूरे साल भर दूर भागते रहते है। हिंदी दिवस पर इकट्ठा होकर सम्मेलन आयोजिक करने लगते है। हिंदी दिवस मनाकर फिर 1 साल के लिए अंग्रेजी की गुलामी के लिए तैयार हो जाते है।
ब्लाँग,सोशल नेटवर्किंग ने भी हिंदी को बढ़ावा दिया है।आज भारत बाजार के रूप में विकसित हो रहा है। इस बाजार में आने के लिए सभी देश हिंदी को बढ़ावा दे रहे है।समय-समय पर हिंदी को विश्वभाषा, राष्ट्रभाषा बनाने की मांग उठती रही है। अगर हिंदी को विश्वभाषा का दर्जा मिल भी जाये तो क्या हम उस हिंदी के दर्जे को बनाये रख पायेगें ।
हमें हिंदी के प्रति अपनी मानसिकता को बदलकर हिंदी को बढ़ावा देना होगा। हिंदी के संस्थानों को संरक्षित करना होगा । हिंदी को गर्व की भाषा बनाना होगा । केवल हिंदी दिवस से हिंदी की स्थिति नहीं बदलेगी।