मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

सुंदरता के बाजार ने बढ़ाई लोगों में सुंदर बनने की चाह

                                                  -संजय कुमार बलौदिया
पिछले दिनों द इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ एस्थेटिक प्लास्टिक सर्जरी का सर्वे प्रकाशित हुआ जिसके मुताबिक कॉस्मेटिक सर्जरी के मामले में अमेरिका, चीन और ब्राजील के बाद भारत चौथे स्थान पर आता है। यह आंकड़ा भारत की कुल आबादी पर आधारित है। सोशल न्यूज नेटवर्क वोकेटिव के अनुसार सर्जरी का बड़ा कारण सोशल साइट पर दूसरों से ज्यादा बेहतर दिखने की होड़ को बताया गया है। प्लास्टिक सर्जरी करवाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। अब लोग सिर्फ इसलिए सर्जरी करवाने लगे है कि उन्हें फेसबुक पर सुंदर दिखना है। सोशल साइट्स पर ज्यादा दोस्त बनाने के लिए और ज्यादा लाइक पाने के लिए भी लोग सुंदर दिखना चाहते है। इस बात से समझा जा सकता है कि पिछले एक दशक में कैसे सुंदरता को लोगों के बीच प्रचारित किया गया है और सुंदरता के मायने बदल दिये गये है। पूंजीवादी व्यवस्था में महिला के शरीर और उसकी सुंदरता को बाजार में बेचने वाले उत्पाद के तौर पर पेश किया जाता है। पहले लोगों के लिए सुंदरता व्यक्ति के व्यक्तित्व से होती थी। लेकिन अब लोगों के लिए सुंदरता के मायने सिर्फ आकर्षक दिखने और जवान दिखने तक सिमट कर रह गए है। सुंदर दिखने की इच्छा हर व्यक्ति की होती है, लेकिन सिर्फ बाहरी सुंदरता को ही सुंदरता मान लेना कितना सही है।

दरअसल सवाल यह है कि लोगों के सुंदर दिखने की चाह को बाजार ने कैसे भुनाया और बढ़ाया है। आज अलग-अलग ब्रांड की हजारों तरह की क्रीमों से बाजार अटे पड़े है। कई कंपनियों ने तो उम्र और स्किन के हिसाब से अलग-अलग फेशियल भी लॉन्च किए है। रोज कोई न कोई नया ब्रांड सुंदर दिखने की क्रीम लांच कर रहा है। पहले महिलाओं के लिए ही सुंदर दिखने की क्रीम और फेसियल उपलब्ध थे, लेकिन आज कई कम्पनियां पुरुषों को भी सुंदर बनाने काम में जुट गई है और पुरुषों के लिए भी कई तरह की क्रीम्स मार्केट में उपलब्ध है। अब इसके एक कदम आगे बढ़कर तकनीक के जरिए लोगों को सुंदर बनाने की कोशिश की जा रही है। यह तकनीक कॉस्मेटिक सर्जरी है। कॉस्मेटिक सर्जरी को त्वचा में कसाव लाने के लिए किया जाता है। पहले जो कास्मेटिक सर्जरी गम्भीर चोट के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाती थी, वही सर्जरी आज लोगों को मनचाहा रूप दे रही है। यह प्रोडक्ट्स या सर्जरी लोगों को यह विश्वास दिलाते है कि उनकी बढ़ती उम्र में भी वह पहले की तरह आकर्षक और जवान दिखेंगे और इन प्रोडक्ट्स से उनका जीवन, कैरियर और संभावनाएं खिल उठेंगी। जबकि इन प्रोडक्ट्स या सर्जरी से लोगों के दिखने में कोई खास अंतर नहीं आता है, लेकिन उसके बावजूद भी लोग इस सुंदरता को पाने होड़ में लगे रहते है।  जिससे आज मार्केट में लोगों को सुंदर बनाने के लिए अलग-अलग तरह की क्रीमों से लेकर कई तरह के सर्जरी पैकेज भी उपलब्ध है।  

एक खबर के मुताबिक देश में सौंदर्य प्रसाधनों का कारोबार साल 2012-13 में 10,000 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर गया। विशेषज्ञों के अनुसार वर्ष 2007 से अब तक राइनोप्लास्टी ( नाक की सर्जरी) के मामलों में 2400 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है। कॉस्मेटिक सर्जरी का व्यापार अरबों डॉलर के आंकड़े पर पहुंच चुका है। आज स्त्री सुंदरता के संदर्भ में स्त्री के स्तन, उसकी कमर और उसके नितंबों का एक खास साइज होना चाहिए, जो बाजार के बनाए मानक के अनुसार हो, अन्यथा वह स्त्री सुंदर नहीं कही जाएगी। स्त्री की इसी छवि को विज्ञापनों के जरिए खूब प्रचारित किया जा रहा है। इसके पीछे कॉस्मेटिक इंडस्ट्री और हेल्थ इंडस्ट्री की भी अहम भूमिका है।

प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक में कई तरह की सुंदर बनाने वाली क्रीमों या सर्जरी के विज्ञापन बखूबी देखने को मिल जाते है। इनके अलावा अब समाचारपत्रों में एक पेज पर सुंदरता को लेकर कई तरह की फीचर स्टोरी भी दी जाती है जिसमें यह बताया जाता है कि कैसे क्रीम्स या सर्जरी से सुंदर बना जा सकता है और प्रकृति उपायों द्वारा भी सुंदर बनने के बारे में बताया जाता है। इसके अलावा सर्जरी को करवाने के खर्च से लेकर उन संस्थानों तक की जानकारी भी दी जाती है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि किस तरह से मीडिया भी बाजार द्वारा बनाई गई सुदंरता को खूब प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। जिससे अब लोगों के लिए सबसे जरूरी सुंदर दिखना हो गया है। कैरियर, पदोन्नति, दोस्तों की संख्या बढ़ाने या लाइक पाने के लिए और आत्मविश्वास पाने के लिए भी सुंदर दिखना जरूरी है। कुल मिलाकर बाजार की सुंदरता के मानदंडों से ही आप स्वयं को सुंदर मान सकते है, वरना नहीं। अब तो लोग जॉब इंटरव्यू और पदोन्नति के लिए भी कॉस्मेटिक सर्जरी करवाने लगे।

पिछले साल एसोसिएशन ऑफ प्लास्टिक सर्जंस ऑफ इंडिया के एक अध्ययन के मुताबिक, पुरुषों में सीने की सर्जरी ने पिछले 5 साल में 150 फीसदी की बढ़त दर्ज की है। पिछले कुछ सालों में ब्रेस्ट सर्जरी अब बेहद लोकप्रिय कॉस्मेटिक सर्जरी में बन गई है। इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ एस्थेटिक प्लास्टिक सर्जरी सर्वे के मुताबिक, भारत में 2010-11 में 51,000 ब्रेस्ट सर्जरी की गई, जबकि वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 15 लाख है। इस प्रकार समझ जा सकता है कि भारत में सर्जरी कराने की गलत प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। भले ही कॉस्मेटिक सर्जरी महंगी न हो, लेकिन इसके नुकसानों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

अभी हाल ही में जामा प्लास्टिक फेसियल सर्जरी ने अपने एक अध्ययन में कहा है कि चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी से मरीजों के युवा दिखने में सिर्फ तीन साल का अंतर आता है। सर्जरी से पहले मरीजों की उम्र क्रमशः 2.1 साल कम उम्र दिखती और सर्जरी के बाद 5.2 साल अधिक जवान दिखते कुल मिलाकर आकर्षक या जवान दिखने में औसतन सिर्फ 3.1 साल का अंतर आता है।

इस अध्ययन और द इंटरनेशनल सोसायटी आफ एस्थेटिक प्लास्टिक सर्जरी के सर्वे से यह बात साफ हो जाती है कि बाजार की सुंदरता और सुंदरता के लिए होने वाली प्रतियोगिताओं ने लोगों को कैसे प्रभावित किया है। पुरुषों के लिए सुदंरता का मतलब सीना सुस्त होना चाहिए और पेट पर अनचाही चर्बी नहीं होनी चाहिए। महिलाओं के संदर्भ सुंदरता, उनका सीना, उनकी कमर, उनके नितंब और उनका वजन बाजार की सुंदरता के मापदंड के अनुसार होना चाहिए। इस सुंदरता को पाने के लिए लोगों की बीच एक होड़ सी लगी है। इससे वह लोग जो इस प्रकार की सुंदरता हासिल नहीं कर पाते है, वह स्वयं को हीन भावना से देखने लगते हैं। इससे वह स्वयं को सुंदर नहीं मानते है। भले ही यह कहा जाता है कि रंग के आधार पर भेदभाव खत्म हो गया हो, लेकिन सच यह है कि सुंदरता का यह विचार लोगों में एक प्रकार की विषमता को जन्म दे रहा है। जिससे लोगों में कहीं न कहीं इस सुंदरता को पाने की लालसा बढ़ती जा रही है और लोग सुंदरता के इन मापदंडों के अनुसार सुंदर दिखने की होड़ में शामिल होते जा रहे हैं।  

कीमती एक रुपया

                                                                                     -संजय कुमार बलौदिया
अभी कुछ दिन पहले एक प्रदर्शन के दौरान अपने कुछ पुराने दोस्तों से मुलाकात हो गई। तब हम सभी दोस्त नोएडा सेक्टर 16 मेट्रो स्टेशन के पास चाय पीने के लिए जगह ढूंढ रहे थे। तभी हमारा एक दोस्त मेट्रो स्टेशन पर लगे स्टॉल से पानी की बोतल लेने गया। पानी की बोतल की कीमत 18 रुपये थी, लेकिन दुकानदार कह रहा था कि यह बोतल 20 रुपये की है। हमारे दोस्त के ज्यादा बहस करने के बाद दुकानदार कहने लगा कि भईया आप तीन रुपये खुले दे दो। वरना पानी की बोतल 20 रुपये की ही है। तब हमारे मित्र ने वापस आकर खुले तीन रुपये मांगे और जाकर दुकानदार को देकर आया।  कुछ दिन बाद ही एक मेट्रो स्टेशन पर मजदूर टिकट ले रहा था। उसका टिकट 21 रुपये का था। मेट्रो कर्मचारी ने मजदूर से एक रुपया खुला मांगा, लेकिन मजदूर के पास दो रुपये का सिक्का था। मजदूर ने दो रुपये का सिक्का मेट्रो कर्मचारी दे दिया, मेट्रो कर्मचारी ने एक रुपये का सिक्का वापस देने के बजाए कह दिया कि हिसाब हो गया। 

 दरअसल बात यह है कि आज एक या दो रुपये वापस न करना एक चलन सा बन गया है। वहीं हमारे समाज में अगर कोई व्यक्ति बचा हुआ एक रुपया या दो रुपया मांगता है, तो लोग उसे अचरज से देखने लगते है कि वह भला एक या दो रुपये का क्या करेगा। खैर अब बचा हुआ एक रुपया मांगने का झमेला ही खत्म करने का और मुनाफा कमाने का नया रास्ता एक टेलीकॉम कंपनी ने निकाला है। यह बात उस कंपनी के विज्ञापन से समझी जा सकती है। यह विज्ञापन आजकल टीवी चैनलों पर काफी छाया हुआ हैकि एक रुपये के बदले में वीडियो देखे, सिर्फ एक रुपये का ही है। इस विज्ञापन के जरिए कंपनी अपनी एक सेवा का प्रचार कर रही है और एक रुपये की कीमत को भी बखूबी बता रही है। लेकिन यहां एक अहम बात यह है कि एक रुपये की कीमत सिर्फ और सिर्फ वीडियो को देखने के लिए है। वीडियो देखने अलावा एक रुपये से आप और कुछ नहीं कर सकते है।

कुछ समय पहले पच्चीस पैसे, फिर पचास की कीमत खत्म कर दी गई। आज लोग आधुनिक परिवेश में एक या दो रुपये की कीमत कम आंकने लगे है। भला एक या दो रुपये वैसे भी है ही क्या। आजकल बस में, मेट्रो स्टेशन पर या डाकघर में जाइए या फिर कहीं भी, वहां पर भी आपको एक ही जवाब मिलेगा कि एक या दो रुपये खुले नहीं है या फिर खुले पैसे दो। अगर खुले पैसे है तो ठीक वरना एक या दो रुपये छोड़ दो। अब लोगों को अपनी जेबों में कम से कम 25 से 50 रुपये खुले लेकर चलना चाहिए। वरना शाम 10-20 रुपये तो ऐसे ही ठग लिये जाएंगे। ऐसे में अमीर आदमी के लिए एक या दो रुपये कोई मायने नहीं रखते हो, लेकिन किसी गरीब के लिए एक या दो रुपये मायने रखता है। जब कोई अमीर आदमी किसी सेवा को लेने के बाद कहता है कि एक या दो रुपये खुले नहीं है, तो कोई बात नहीं है। वहीं से यह सारी कहानी शुरू होती है। अब जब कोई गरीब उस सेवा का इस्तेमाल करता है, तब वह विक्रेता या दुकानदार उसे भी कहेगा कि एक या दो रुपये खुले नहीं। अगर कोई डाकघर की सेवा ले रहा है, तो बचे हुए एक या दो रुपये मांगने पर डाक  टिकट थामा दिया जाता है।

सूचना क्रांति के दौर में एक रुपये को चुकाने के बदले में नया तरीका वीडियो को दिखाने का इजाद किया गया है। इस वीडियो से भी उपभोक्ता बेचारा पहले की तरह ही ठगा जाएगा, लेकिन उसे ठगे जाने का एहसास नहीं होने दिया जाएगा। अब अगर कोई उपभोक्ता एक रुपया मांगेगा, तो लोग उसे फट से वीडियो दिखाने लगेंगे। सवाल यह है कि वह उपभोक्ता वीडियो क्यों देखे। दूसरी बात यह है कि अब बाजार या कंपनियां तय कर रही है कि हम कैसे रुपया खर्च करेंगे।

इस एक रुपये की गतिविधि को हम भले ही छोटी या कमतर आंके, लेकिन हकीकत यही है कि इस एक रुपये से ही ठगी का खेल शुरू होता है। पहले एक रुपये, अब दो रुपये, इसके बाद होगा कि पांच रुपये नहीं है। हमारे लिए उस एक रुपये का मतलब न हो, लेकिन यह सोचने वाली बात है कि कैसे एक व्यक्ति से एक, दो रुपये आसानी से खुलेआम लूटे जा रहे है। सबसे मजेदार बात तो यह है कि इस लूट की कोई शिकायत या गुस्सा भी लोग नहीं करते है। अगर यह सोचा जाए कि वह व्यक्ति अगर एकएक रुपया करके शाम तक 100 लोगों को भी एक रुपया वापस नहीं लौटता है, तो शाम तक 100 रुपये हो गए और एक महीने में तीन हजार रुपये हो जाएंगे।

जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक ने बताया कि सरकारी रुपया कैसे भ्रष्टाचार के कारण नीचे तक पहुंचते-पहुंचते दस-पन्द्रह पैसे रह जाता है। लेकिन हम लोग अभी तक रुपये की कीमत को नहीं समझे है। वहीं योजना आयोग ने गरीबी के नए आंकड़े जारी किए है जिसमें गांवों में 27 और शहरों में 33 रुपये से कम कमाने वालों को गरीबों की श्रेणी में रखा है। दो सालों में सरकार ने गांवों और शहरों के लोगों की आमदनी में सिर्फ 1 रुपये की बढ़ोत्तरी की है। अब तो लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि एक रुपया कितना कीमती है।



मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

मंदी और मीडिया

                                                             संजय कुमार बलौदिया
मीडिया संस्थानों में आर्थिक संकट या मंदी के बहाने कर्मचारियों की छंटनी को एक स्वीकृति के रूप में लिया जाता है। 2008 की मंदी2011 का यूरोपीय संकट और 2013 में मंदी के दौर में भारत के कई मीडिया संस्थानों में कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर छंटनी की गई। छंटनी का अर्थ उन्हें काम से बाहर करना है और उन्हें दी जाने वाली महावार राशि और कानूनी सुविधाओं पर खर्च होनी वाली राशि को मीडिया संस्थानों द्वारा बचाना है। 2013 की मंदी के हालात में दो तरह की स्थितियां सामने आई। कई मीडिया संस्थानों ने अपने चैनलसमाचार पत्रसमाचार पत्रों के नये संस्करण शुरू किए। दूसरी तरफ कई मीडिया संस्थानों में कर्मचारियों की छंटनी की गई। पहला प्रश्न है कि क्या मंदी मीडिया संस्थानों में कुछ खास संस्थानों को प्रभावित करता है दूसरा मंदी के हालात के दावे के बावजूद मीडिया संस्थान अपने विस्तार या दूसरे उद्योग धंधे में सक्रिय संस्थान मीडिया संस्थान स्थापित करने का फैसला क्यों करते हैंक्या छंटनी का फैसला किसी मीडिया कंपनी के वार्षिक आय-व्यय के ब्यौरे में नुकसान के आने की वजह से किया जाता है या नुकसान की आशंका के मद्देनजर किया जाता हैनेटवर्क -18 कंपनी ने आर्थिक स्थिति ठीक न होने का तर्क देकर छंटनी की ( नमूना तालिका देखें) जबकि वित्त वर्ष 2012-13 में टीवी 18 समूह को 165 करोड़ का सकल लाभ हुआ और बीते वर्ष में यह लाभ 75.9 करोड़ रुपये का था। हिन्दुस्तान मीडिया वेंचर्स लिमिटेड को 2013 की दूसरी तिमाही शुद्ध लाभ 24.91 करोड़ रुपये हुआ। टाइम्स ऑफ इंडियाहिन्दुस्तान टाइम्स और दूसरे जितने समूहों ने 2013 से पहले के कुछेक वर्षों में जितने कर्मचारियों की छंटनी की है उनके छंटनी के तर्कों और उन कंपनियों को होने वाले लाभ का विश्लेषण किया जा सकता है। टाइम्स ऑफ इंडियाहिन्दुस्तान टाइम्स आदि कंपनियां लगातार भारी मुनाफा कमा रही है।

सीआईआई एवं परामर्श फर्म पीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट के मुताबिक2012 में मनोरंजन एवं मीडिया उद्योग का आकार 96,500 करोड़ रुपये का था जो साल दर साल 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। इसी रिपोर्ट का यह भी अनुमान है कि भारत का मनोरंजन एवं मीडिया उद्योग  2017 तक 2.25 लाख करोड़ रुपये तक हो जायेगा। फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट 2013 के अनुसार मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2012 में 2011 के मुकाबले 12.6 प्रतिशत बढ़ाकर 821 बिलियन रुपये हो गया है। 2017 के बारे में अनुमान है कि यह उद्योग 1661 बिलियन रूपये तक पहुंच जाएगा। वहीं भारत में विज्ञापन के मद में 2012 में 327.04 बिलियन रूपये खर्च किए गए।

इसी प्रकार यूरोपीय संकट के दौरान फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट 2012 के मुताबिक मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2011 में 2010 के मुकाबले 12 प्रतिशत बढ़कर 728 बिलयन रुपये का हो गया। 2011 में भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग ने 2010 के मुकाबले 12 प्रतिशत की दर से विकास किया। जब वैश्विक आर्थिक संकट आया हुआ था तब भी मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2008 में 2007 के मुकाबले 12.4 प्रतिशत बढ़कर 584 बिलियन रुपये का हो गया । आउटलुक के पूर्व संपादक नीलाभ मिश्रा ने भी एक साक्षात्कार में यह माना है कि मंदी के दौरान उनकी पत्रिका आउटलुक के सर्कुलेशन पर कोई खास असर नहीं पड़ा। पत्रिका ने मंदी के दौरान मुनाफा कमाया। मीडिया संस्थानों को 2008-09 में मंदी के दौरान बढ़ी हुई दरों पर सरकारी विज्ञापन मिले और अखबारी कागज के आयत की ड्यूटी पर छूट भी मिली।



मंदी के दौरान छंटनी करने वाले मीडिया संस्थान
समूह
छंटनी
टीवी 18 समूह
350
ब्लूमबर्ग टीवी
30
आउटलुक मनी
14
दैनिक भास्कर
कई पत्रकार
पायनियर
35



मंदी के दौरान मीडिया कंपनियों का विस्तार
समूह
नई पहल
जी मीडिया
जी राजस्थान प्लस/एंड पिक्चर’/ अनमोल चैनल शुरू किया
जी मीडिया    
मौर्या टीवी के अधिग्रहण करने की अधिकारिक घोषणा की
लाइव इंडिया न्यूज चैनल
लाइव इंडिया’ अखबार लांच किया
टीवी 18 समूह
न्यूज 18 इंडिया’ (यू.के) को लांच किया
हिन्दुस्तान अखबार
रांची लाइव’ अखबार शुरू किया
सहारा इंडिया टेलीविजन नेटवर्क
समय राजस्थान’ चैनल लांच किया
टाइम्स टेलीविजन नेटवर्क
रोमेडी नाउ’ चैनल लांच किया

                                                                                         
                                                                                                                         जनमीडिया के नवम्बर 2013 के अंक प्रकाशित