सोमवार, 24 सितंबर 2012

हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता और हिन्दी का गिरता स्तर




एक बार फिर हिन्दी दिवस पर सैकड़ों आयोजन हुए। जिनमें हिन्दी के बढ़ते महत्व पर व्याख्यान दिए गए, तो कहीं हिन्दी की गिरावट पर चर्चा हुई। इसके बाद हम फिर पूरे साल हिन्दी की उपेक्षा करने लगेंगे ।

    हम अपनी भाषा की उपेक्षा क्यों करने लग जाते हैं, जबकि पश्चिमी देशों में हिन्दी पढ़ाए जाने पर हमें गर्व होता है। यह हिन्दी के लिए अच्छा है कि आज दुनिया के करीब 115 शिक्षण संस्थानों में  हिन्दी का अध्ययन हो रहा है। अमेरिका, जर्मनी में भी हिन्दी को पढ़ाया जा रहा है। हमें अन्य देशों से सिखना चाहिए कि कैसे वह अपनी भाषा के साथ ही अन्य भाषा को भी अपनाने की कोशिश करते हैं।
     एक ओर हिन्दी लोकप्रिय हो रही है, लेकिन वहीं हिन्दी का स्तर भी गिरता जा रहा है। हम हिन्दी की स्थिति को जानने के लिए अखबारों, न्यूज चैनलों का सहारा लेते हैं। आज हिन्दी अखबारों के भले ही करोड़ो पाठक है। जिससे यह कहा जाता है कि हिन्दी फल-फूल रही है, जबकि हिन्दी की स्थिति अच्छी नहीं है, क्योंकि आज अखबारों में हिंग्लिश शब्दों का प्रचलन बढ़ रहा है। वहीं हिन्दी अखबारों में से आज आई-नेक्सट जैसे समाचार पत्र भी निकल कर रहे हैं। जो न तो पूरी तरह से  हिन्दी और न ही पूरी तरह से अंग्रेजी है, जिसे युवा वर्ग काफी पसंद कर रहा है। हिन्दी अखबारों में कुछ अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हो तो अच्छा है, लेकिन जब  हिन्दी के आसान शब्दों के स्थान पर भी अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाए, तो स्थिति चिंताजनक हो जाती है।
     यह भी कहा जाता है कि लोग मीडिया से अपनी भाषा बनाते हैं। ऐसे में जब हिन्दी के ही बड़े अखबार हिन्दी के एक ही शब्द को अलग-अलग तरीके से लिख रहे हो- जैसे- कोई अखबार सीबीआई को सीबीआइ, बैलेस्टिक को बलिस्टिक, टॉवर को टावर, कॉलोनी को कोलोनी लिख रहे हैं। ऐसे में जब पाठक मीडिया से अपनी भाषा तय करता है, तो पाठक सही गलत के फेर में उलझ जाता है। इन शब्दों को आज चाहे स्टाइल शीट के बहाने प्रयोग किया जा रहा है या फिर हिन्दी की मानक के शब्दों को भुलाने की कोशिश हो रही है।
     हिन्दी सिनेमा ने जहां हिन्दी के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है। सिनेमा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हिन्दी को लोकप्रियता दिलाई है, लेकिन आज हिन्दी सिनेमा भी अंग्रेजी की गिरफ्त में आ गया है। आज हमारी फिल्म तो  हिन्दी है, लेकिन नाम अंग्रेजी है- जैसे वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई, गैंग्स आॅफ वासेपुर, देल्ही बेली, नॉटी एट फोर्टी है। ऐसे में क्या कहा जाए कि अब  हिन्दी मीडिया की तरह हिन्दी सिनेमा में भी अंग्रेजी शब्दों या हिंग्लिश भाषा का चलन बढ़ रहा है। इसके बाद कहीं हिन्दी के बजाए हिंग्लिश भाषा में फिल्में तो नहीं आने लगेंगी।
     अब बात करें स्कूली शिक्षा की तो इस बार यूपी बोर्ड में हिन्दी में सवा तीन लाख बच्चे फेल हो जाते हैं। यह चिंतनीय विषय है, क्योंकि इन बच्चों से ही  हिन्दी का भविष्य तय होगा। हिंदी में इतने बच्चों के फेल होने पर मीडिया में इस पर कोई खास चर्चा नहीं हुई।

   हिन्दी के गिरते स्तर को सुधारने की जरुरत है। हम जिस तरह अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर देते हैं, उसी तरह हमें अपने बच्चों को  हिन्दी पढ़ाने पर भी जोर देना चाहिए। सरकार द्वारा भी प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के तौर हिन्दी को बनाए रखना चाहिए। हमारे मीडिया को चाहिए कि वह भी हिन्दी की लोकप्रियता के साथ ही उसके स्तर पर भी ध्यान दें, वरना आने वाले समय आई-नेक्सट जैसे अखबारों की भरमार होगी।


बुधवार, 19 सितंबर 2012

न्यूड फोटोशूट: अश्लीलता या आजादी


 
पिछले कुछ समय से न्यूड होने का दौर चल पड़ा है। दिसंबर 2011 में वीना मलिक ने एफएचएम(FHM) पत्रिका के लिए न्यूड फोटोशूट करवाया। फिर कोलकाता नाइट राइडर्स के खिताब जीतने पर पूनम पांडे न्यूड हुई, तो वहीं शर्लिन चोपड़ा इंटरनेशनल एडल्ट मैगजीन प्लेब्वॉय के लिए न्यूड पोज देने वाली पहली भारतीय महिला बनी। इसके बाद शमिता शर्मा और अब टीवी एक्ट्रेस भी न्यूड होने से परहेज नहीं कर रही है। इन न्यूड फोटोशूट के बहाने अश्लीलता परोसी जा रही है। इसके लिए मीडिया भी अहम भूमिका निभाने से परहेज नहीं कर रहा है।

   शर्लिन चोपड़ा जिन्हें न्यूड होने पर गर्व  है। उनका मानना है कि मैगजीन के  लिए कपड़े उतारना खुद को रूढ़िवादी परंपरा से आजाद करने से कम नहीं हैं। इसे अब क्या यह मान लिया जाए कि महिलाओं को आजादी मिल गई है या फिर आजादी के नाम पर अश्लीलता परोसने का बहाना मात्र है। आज भी महिलाओं को जहां उनके अधिकार नहीं मिल सके है, तो वहीं कुछ महिलाएं न्यूड फोटोशूट करवाकर दैहिक स्वतंत्रता को मात्र देह में बदलना चाहती है। पहले विज्ञापन ने महिला को मात्र देह में बदलने की कोशिश की और अब न्यूड  फोटोशूटों के जरिए भी वहीं हो रहा।


 फिल्मों की अश्लीलता रोकने के लिए सेंसर बोर्ड ने निर्णय लिया है कि वह जिस फिल्म को एडल्ट सर्टिफिकेट देगा, उनका अब किसी तरह टीवी पर प्रदर्शन लगभग असंभव हो जाएगा। इस अश्लीलता पर तो सेंसर बोर्ड रोक लगने की कोशिश कर रहा है, लेकिन न्यूड फोटोशूट के जरिए जो अश्लीलता हमारा मीडिया खबरों के माध्यम से परोस रहा है उसका क्या। मीडिया न्यूड फोटोशूट की खबरों को बड़ी प्रमुखता से पेश कर रहा है। इन फोटोशूट से जहां हमारी संस्कृति प्रभावित हो रही है, वहीं महिलाओं की आजादी का दायरा सीमित होने का खतरा भी हैं।


 अब हमें समझना होगा कि ये फोटोशूट सिर्फ कुछ मॉडलों के लिए मात्र नाम और पैसा कमाने का जरिए हैं, न कि महिलाओं की आजादी।  ऐसे में मीडिया को भी इन फोटोशूटों को ज्यादा तवज्जों नहीं देनी चाहिए, जिससे सस्ती लोकप्रियता की भूखी मॉडलों को भी बढ़ावा न मिलें।