मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

सुंदरता के बाजार ने बढ़ाई लोगों में सुंदर बनने की चाह

                                                  -संजय कुमार बलौदिया
पिछले दिनों द इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ एस्थेटिक प्लास्टिक सर्जरी का सर्वे प्रकाशित हुआ जिसके मुताबिक कॉस्मेटिक सर्जरी के मामले में अमेरिका, चीन और ब्राजील के बाद भारत चौथे स्थान पर आता है। यह आंकड़ा भारत की कुल आबादी पर आधारित है। सोशल न्यूज नेटवर्क वोकेटिव के अनुसार सर्जरी का बड़ा कारण सोशल साइट पर दूसरों से ज्यादा बेहतर दिखने की होड़ को बताया गया है। प्लास्टिक सर्जरी करवाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। अब लोग सिर्फ इसलिए सर्जरी करवाने लगे है कि उन्हें फेसबुक पर सुंदर दिखना है। सोशल साइट्स पर ज्यादा दोस्त बनाने के लिए और ज्यादा लाइक पाने के लिए भी लोग सुंदर दिखना चाहते है। इस बात से समझा जा सकता है कि पिछले एक दशक में कैसे सुंदरता को लोगों के बीच प्रचारित किया गया है और सुंदरता के मायने बदल दिये गये है। पूंजीवादी व्यवस्था में महिला के शरीर और उसकी सुंदरता को बाजार में बेचने वाले उत्पाद के तौर पर पेश किया जाता है। पहले लोगों के लिए सुंदरता व्यक्ति के व्यक्तित्व से होती थी। लेकिन अब लोगों के लिए सुंदरता के मायने सिर्फ आकर्षक दिखने और जवान दिखने तक सिमट कर रह गए है। सुंदर दिखने की इच्छा हर व्यक्ति की होती है, लेकिन सिर्फ बाहरी सुंदरता को ही सुंदरता मान लेना कितना सही है।

दरअसल सवाल यह है कि लोगों के सुंदर दिखने की चाह को बाजार ने कैसे भुनाया और बढ़ाया है। आज अलग-अलग ब्रांड की हजारों तरह की क्रीमों से बाजार अटे पड़े है। कई कंपनियों ने तो उम्र और स्किन के हिसाब से अलग-अलग फेशियल भी लॉन्च किए है। रोज कोई न कोई नया ब्रांड सुंदर दिखने की क्रीम लांच कर रहा है। पहले महिलाओं के लिए ही सुंदर दिखने की क्रीम और फेसियल उपलब्ध थे, लेकिन आज कई कम्पनियां पुरुषों को भी सुंदर बनाने काम में जुट गई है और पुरुषों के लिए भी कई तरह की क्रीम्स मार्केट में उपलब्ध है। अब इसके एक कदम आगे बढ़कर तकनीक के जरिए लोगों को सुंदर बनाने की कोशिश की जा रही है। यह तकनीक कॉस्मेटिक सर्जरी है। कॉस्मेटिक सर्जरी को त्वचा में कसाव लाने के लिए किया जाता है। पहले जो कास्मेटिक सर्जरी गम्भीर चोट के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाती थी, वही सर्जरी आज लोगों को मनचाहा रूप दे रही है। यह प्रोडक्ट्स या सर्जरी लोगों को यह विश्वास दिलाते है कि उनकी बढ़ती उम्र में भी वह पहले की तरह आकर्षक और जवान दिखेंगे और इन प्रोडक्ट्स से उनका जीवन, कैरियर और संभावनाएं खिल उठेंगी। जबकि इन प्रोडक्ट्स या सर्जरी से लोगों के दिखने में कोई खास अंतर नहीं आता है, लेकिन उसके बावजूद भी लोग इस सुंदरता को पाने होड़ में लगे रहते है।  जिससे आज मार्केट में लोगों को सुंदर बनाने के लिए अलग-अलग तरह की क्रीमों से लेकर कई तरह के सर्जरी पैकेज भी उपलब्ध है।  

एक खबर के मुताबिक देश में सौंदर्य प्रसाधनों का कारोबार साल 2012-13 में 10,000 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर गया। विशेषज्ञों के अनुसार वर्ष 2007 से अब तक राइनोप्लास्टी ( नाक की सर्जरी) के मामलों में 2400 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है। कॉस्मेटिक सर्जरी का व्यापार अरबों डॉलर के आंकड़े पर पहुंच चुका है। आज स्त्री सुंदरता के संदर्भ में स्त्री के स्तन, उसकी कमर और उसके नितंबों का एक खास साइज होना चाहिए, जो बाजार के बनाए मानक के अनुसार हो, अन्यथा वह स्त्री सुंदर नहीं कही जाएगी। स्त्री की इसी छवि को विज्ञापनों के जरिए खूब प्रचारित किया जा रहा है। इसके पीछे कॉस्मेटिक इंडस्ट्री और हेल्थ इंडस्ट्री की भी अहम भूमिका है।

प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक में कई तरह की सुंदर बनाने वाली क्रीमों या सर्जरी के विज्ञापन बखूबी देखने को मिल जाते है। इनके अलावा अब समाचारपत्रों में एक पेज पर सुंदरता को लेकर कई तरह की फीचर स्टोरी भी दी जाती है जिसमें यह बताया जाता है कि कैसे क्रीम्स या सर्जरी से सुंदर बना जा सकता है और प्रकृति उपायों द्वारा भी सुंदर बनने के बारे में बताया जाता है। इसके अलावा सर्जरी को करवाने के खर्च से लेकर उन संस्थानों तक की जानकारी भी दी जाती है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि किस तरह से मीडिया भी बाजार द्वारा बनाई गई सुदंरता को खूब प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। जिससे अब लोगों के लिए सबसे जरूरी सुंदर दिखना हो गया है। कैरियर, पदोन्नति, दोस्तों की संख्या बढ़ाने या लाइक पाने के लिए और आत्मविश्वास पाने के लिए भी सुंदर दिखना जरूरी है। कुल मिलाकर बाजार की सुंदरता के मानदंडों से ही आप स्वयं को सुंदर मान सकते है, वरना नहीं। अब तो लोग जॉब इंटरव्यू और पदोन्नति के लिए भी कॉस्मेटिक सर्जरी करवाने लगे।

पिछले साल एसोसिएशन ऑफ प्लास्टिक सर्जंस ऑफ इंडिया के एक अध्ययन के मुताबिक, पुरुषों में सीने की सर्जरी ने पिछले 5 साल में 150 फीसदी की बढ़त दर्ज की है। पिछले कुछ सालों में ब्रेस्ट सर्जरी अब बेहद लोकप्रिय कॉस्मेटिक सर्जरी में बन गई है। इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ एस्थेटिक प्लास्टिक सर्जरी सर्वे के मुताबिक, भारत में 2010-11 में 51,000 ब्रेस्ट सर्जरी की गई, जबकि वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 15 लाख है। इस प्रकार समझ जा सकता है कि भारत में सर्जरी कराने की गलत प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। भले ही कॉस्मेटिक सर्जरी महंगी न हो, लेकिन इसके नुकसानों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

अभी हाल ही में जामा प्लास्टिक फेसियल सर्जरी ने अपने एक अध्ययन में कहा है कि चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी से मरीजों के युवा दिखने में सिर्फ तीन साल का अंतर आता है। सर्जरी से पहले मरीजों की उम्र क्रमशः 2.1 साल कम उम्र दिखती और सर्जरी के बाद 5.2 साल अधिक जवान दिखते कुल मिलाकर आकर्षक या जवान दिखने में औसतन सिर्फ 3.1 साल का अंतर आता है।

इस अध्ययन और द इंटरनेशनल सोसायटी आफ एस्थेटिक प्लास्टिक सर्जरी के सर्वे से यह बात साफ हो जाती है कि बाजार की सुंदरता और सुंदरता के लिए होने वाली प्रतियोगिताओं ने लोगों को कैसे प्रभावित किया है। पुरुषों के लिए सुदंरता का मतलब सीना सुस्त होना चाहिए और पेट पर अनचाही चर्बी नहीं होनी चाहिए। महिलाओं के संदर्भ सुंदरता, उनका सीना, उनकी कमर, उनके नितंब और उनका वजन बाजार की सुंदरता के मापदंड के अनुसार होना चाहिए। इस सुंदरता को पाने के लिए लोगों की बीच एक होड़ सी लगी है। इससे वह लोग जो इस प्रकार की सुंदरता हासिल नहीं कर पाते है, वह स्वयं को हीन भावना से देखने लगते हैं। इससे वह स्वयं को सुंदर नहीं मानते है। भले ही यह कहा जाता है कि रंग के आधार पर भेदभाव खत्म हो गया हो, लेकिन सच यह है कि सुंदरता का यह विचार लोगों में एक प्रकार की विषमता को जन्म दे रहा है। जिससे लोगों में कहीं न कहीं इस सुंदरता को पाने की लालसा बढ़ती जा रही है और लोग सुंदरता के इन मापदंडों के अनुसार सुंदर दिखने की होड़ में शामिल होते जा रहे हैं।  

कीमती एक रुपया

                                                                                     -संजय कुमार बलौदिया
अभी कुछ दिन पहले एक प्रदर्शन के दौरान अपने कुछ पुराने दोस्तों से मुलाकात हो गई। तब हम सभी दोस्त नोएडा सेक्टर 16 मेट्रो स्टेशन के पास चाय पीने के लिए जगह ढूंढ रहे थे। तभी हमारा एक दोस्त मेट्रो स्टेशन पर लगे स्टॉल से पानी की बोतल लेने गया। पानी की बोतल की कीमत 18 रुपये थी, लेकिन दुकानदार कह रहा था कि यह बोतल 20 रुपये की है। हमारे दोस्त के ज्यादा बहस करने के बाद दुकानदार कहने लगा कि भईया आप तीन रुपये खुले दे दो। वरना पानी की बोतल 20 रुपये की ही है। तब हमारे मित्र ने वापस आकर खुले तीन रुपये मांगे और जाकर दुकानदार को देकर आया।  कुछ दिन बाद ही एक मेट्रो स्टेशन पर मजदूर टिकट ले रहा था। उसका टिकट 21 रुपये का था। मेट्रो कर्मचारी ने मजदूर से एक रुपया खुला मांगा, लेकिन मजदूर के पास दो रुपये का सिक्का था। मजदूर ने दो रुपये का सिक्का मेट्रो कर्मचारी दे दिया, मेट्रो कर्मचारी ने एक रुपये का सिक्का वापस देने के बजाए कह दिया कि हिसाब हो गया। 

 दरअसल बात यह है कि आज एक या दो रुपये वापस न करना एक चलन सा बन गया है। वहीं हमारे समाज में अगर कोई व्यक्ति बचा हुआ एक रुपया या दो रुपया मांगता है, तो लोग उसे अचरज से देखने लगते है कि वह भला एक या दो रुपये का क्या करेगा। खैर अब बचा हुआ एक रुपया मांगने का झमेला ही खत्म करने का और मुनाफा कमाने का नया रास्ता एक टेलीकॉम कंपनी ने निकाला है। यह बात उस कंपनी के विज्ञापन से समझी जा सकती है। यह विज्ञापन आजकल टीवी चैनलों पर काफी छाया हुआ हैकि एक रुपये के बदले में वीडियो देखे, सिर्फ एक रुपये का ही है। इस विज्ञापन के जरिए कंपनी अपनी एक सेवा का प्रचार कर रही है और एक रुपये की कीमत को भी बखूबी बता रही है। लेकिन यहां एक अहम बात यह है कि एक रुपये की कीमत सिर्फ और सिर्फ वीडियो को देखने के लिए है। वीडियो देखने अलावा एक रुपये से आप और कुछ नहीं कर सकते है।

कुछ समय पहले पच्चीस पैसे, फिर पचास की कीमत खत्म कर दी गई। आज लोग आधुनिक परिवेश में एक या दो रुपये की कीमत कम आंकने लगे है। भला एक या दो रुपये वैसे भी है ही क्या। आजकल बस में, मेट्रो स्टेशन पर या डाकघर में जाइए या फिर कहीं भी, वहां पर भी आपको एक ही जवाब मिलेगा कि एक या दो रुपये खुले नहीं है या फिर खुले पैसे दो। अगर खुले पैसे है तो ठीक वरना एक या दो रुपये छोड़ दो। अब लोगों को अपनी जेबों में कम से कम 25 से 50 रुपये खुले लेकर चलना चाहिए। वरना शाम 10-20 रुपये तो ऐसे ही ठग लिये जाएंगे। ऐसे में अमीर आदमी के लिए एक या दो रुपये कोई मायने नहीं रखते हो, लेकिन किसी गरीब के लिए एक या दो रुपये मायने रखता है। जब कोई अमीर आदमी किसी सेवा को लेने के बाद कहता है कि एक या दो रुपये खुले नहीं है, तो कोई बात नहीं है। वहीं से यह सारी कहानी शुरू होती है। अब जब कोई गरीब उस सेवा का इस्तेमाल करता है, तब वह विक्रेता या दुकानदार उसे भी कहेगा कि एक या दो रुपये खुले नहीं। अगर कोई डाकघर की सेवा ले रहा है, तो बचे हुए एक या दो रुपये मांगने पर डाक  टिकट थामा दिया जाता है।

सूचना क्रांति के दौर में एक रुपये को चुकाने के बदले में नया तरीका वीडियो को दिखाने का इजाद किया गया है। इस वीडियो से भी उपभोक्ता बेचारा पहले की तरह ही ठगा जाएगा, लेकिन उसे ठगे जाने का एहसास नहीं होने दिया जाएगा। अब अगर कोई उपभोक्ता एक रुपया मांगेगा, तो लोग उसे फट से वीडियो दिखाने लगेंगे। सवाल यह है कि वह उपभोक्ता वीडियो क्यों देखे। दूसरी बात यह है कि अब बाजार या कंपनियां तय कर रही है कि हम कैसे रुपया खर्च करेंगे।

इस एक रुपये की गतिविधि को हम भले ही छोटी या कमतर आंके, लेकिन हकीकत यही है कि इस एक रुपये से ही ठगी का खेल शुरू होता है। पहले एक रुपये, अब दो रुपये, इसके बाद होगा कि पांच रुपये नहीं है। हमारे लिए उस एक रुपये का मतलब न हो, लेकिन यह सोचने वाली बात है कि कैसे एक व्यक्ति से एक, दो रुपये आसानी से खुलेआम लूटे जा रहे है। सबसे मजेदार बात तो यह है कि इस लूट की कोई शिकायत या गुस्सा भी लोग नहीं करते है। अगर यह सोचा जाए कि वह व्यक्ति अगर एकएक रुपया करके शाम तक 100 लोगों को भी एक रुपया वापस नहीं लौटता है, तो शाम तक 100 रुपये हो गए और एक महीने में तीन हजार रुपये हो जाएंगे।

जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक ने बताया कि सरकारी रुपया कैसे भ्रष्टाचार के कारण नीचे तक पहुंचते-पहुंचते दस-पन्द्रह पैसे रह जाता है। लेकिन हम लोग अभी तक रुपये की कीमत को नहीं समझे है। वहीं योजना आयोग ने गरीबी के नए आंकड़े जारी किए है जिसमें गांवों में 27 और शहरों में 33 रुपये से कम कमाने वालों को गरीबों की श्रेणी में रखा है। दो सालों में सरकार ने गांवों और शहरों के लोगों की आमदनी में सिर्फ 1 रुपये की बढ़ोत्तरी की है। अब तो लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि एक रुपया कितना कीमती है।



मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

मंदी और मीडिया

                                                             संजय कुमार बलौदिया
मीडिया संस्थानों में आर्थिक संकट या मंदी के बहाने कर्मचारियों की छंटनी को एक स्वीकृति के रूप में लिया जाता है। 2008 की मंदी2011 का यूरोपीय संकट और 2013 में मंदी के दौर में भारत के कई मीडिया संस्थानों में कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर छंटनी की गई। छंटनी का अर्थ उन्हें काम से बाहर करना है और उन्हें दी जाने वाली महावार राशि और कानूनी सुविधाओं पर खर्च होनी वाली राशि को मीडिया संस्थानों द्वारा बचाना है। 2013 की मंदी के हालात में दो तरह की स्थितियां सामने आई। कई मीडिया संस्थानों ने अपने चैनलसमाचार पत्रसमाचार पत्रों के नये संस्करण शुरू किए। दूसरी तरफ कई मीडिया संस्थानों में कर्मचारियों की छंटनी की गई। पहला प्रश्न है कि क्या मंदी मीडिया संस्थानों में कुछ खास संस्थानों को प्रभावित करता है दूसरा मंदी के हालात के दावे के बावजूद मीडिया संस्थान अपने विस्तार या दूसरे उद्योग धंधे में सक्रिय संस्थान मीडिया संस्थान स्थापित करने का फैसला क्यों करते हैंक्या छंटनी का फैसला किसी मीडिया कंपनी के वार्षिक आय-व्यय के ब्यौरे में नुकसान के आने की वजह से किया जाता है या नुकसान की आशंका के मद्देनजर किया जाता हैनेटवर्क -18 कंपनी ने आर्थिक स्थिति ठीक न होने का तर्क देकर छंटनी की ( नमूना तालिका देखें) जबकि वित्त वर्ष 2012-13 में टीवी 18 समूह को 165 करोड़ का सकल लाभ हुआ और बीते वर्ष में यह लाभ 75.9 करोड़ रुपये का था। हिन्दुस्तान मीडिया वेंचर्स लिमिटेड को 2013 की दूसरी तिमाही शुद्ध लाभ 24.91 करोड़ रुपये हुआ। टाइम्स ऑफ इंडियाहिन्दुस्तान टाइम्स और दूसरे जितने समूहों ने 2013 से पहले के कुछेक वर्षों में जितने कर्मचारियों की छंटनी की है उनके छंटनी के तर्कों और उन कंपनियों को होने वाले लाभ का विश्लेषण किया जा सकता है। टाइम्स ऑफ इंडियाहिन्दुस्तान टाइम्स आदि कंपनियां लगातार भारी मुनाफा कमा रही है।

सीआईआई एवं परामर्श फर्म पीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट के मुताबिक2012 में मनोरंजन एवं मीडिया उद्योग का आकार 96,500 करोड़ रुपये का था जो साल दर साल 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। इसी रिपोर्ट का यह भी अनुमान है कि भारत का मनोरंजन एवं मीडिया उद्योग  2017 तक 2.25 लाख करोड़ रुपये तक हो जायेगा। फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट 2013 के अनुसार मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2012 में 2011 के मुकाबले 12.6 प्रतिशत बढ़ाकर 821 बिलियन रुपये हो गया है। 2017 के बारे में अनुमान है कि यह उद्योग 1661 बिलियन रूपये तक पहुंच जाएगा। वहीं भारत में विज्ञापन के मद में 2012 में 327.04 बिलियन रूपये खर्च किए गए।

इसी प्रकार यूरोपीय संकट के दौरान फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट 2012 के मुताबिक मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2011 में 2010 के मुकाबले 12 प्रतिशत बढ़कर 728 बिलयन रुपये का हो गया। 2011 में भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग ने 2010 के मुकाबले 12 प्रतिशत की दर से विकास किया। जब वैश्विक आर्थिक संकट आया हुआ था तब भी मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2008 में 2007 के मुकाबले 12.4 प्रतिशत बढ़कर 584 बिलियन रुपये का हो गया । आउटलुक के पूर्व संपादक नीलाभ मिश्रा ने भी एक साक्षात्कार में यह माना है कि मंदी के दौरान उनकी पत्रिका आउटलुक के सर्कुलेशन पर कोई खास असर नहीं पड़ा। पत्रिका ने मंदी के दौरान मुनाफा कमाया। मीडिया संस्थानों को 2008-09 में मंदी के दौरान बढ़ी हुई दरों पर सरकारी विज्ञापन मिले और अखबारी कागज के आयत की ड्यूटी पर छूट भी मिली।



मंदी के दौरान छंटनी करने वाले मीडिया संस्थान
समूह
छंटनी
टीवी 18 समूह
350
ब्लूमबर्ग टीवी
30
आउटलुक मनी
14
दैनिक भास्कर
कई पत्रकार
पायनियर
35



मंदी के दौरान मीडिया कंपनियों का विस्तार
समूह
नई पहल
जी मीडिया
जी राजस्थान प्लस/एंड पिक्चर’/ अनमोल चैनल शुरू किया
जी मीडिया    
मौर्या टीवी के अधिग्रहण करने की अधिकारिक घोषणा की
लाइव इंडिया न्यूज चैनल
लाइव इंडिया’ अखबार लांच किया
टीवी 18 समूह
न्यूज 18 इंडिया’ (यू.के) को लांच किया
हिन्दुस्तान अखबार
रांची लाइव’ अखबार शुरू किया
सहारा इंडिया टेलीविजन नेटवर्क
समय राजस्थान’ चैनल लांच किया
टाइम्स टेलीविजन नेटवर्क
रोमेडी नाउ’ चैनल लांच किया

                                                                                         
                                                                                                                         जनमीडिया के नवम्बर 2013 के अंक प्रकाशित                                                           

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

वोटों का शिलान्यास

                                                           संजय कुमार बलौदिया
कुछ समय पहले ही डीयू और जेएनयू में छात्र संघ के चुनाव हुए उन चुनावों में डीयू में 40 फीसदी मतदान हुआ, जबकि जेएनयू में 55 फीसदी मतदान हुआ। इससे लगता है कि अब लोगों के साथ ही छात्र-छात्राएं भी चुनाव के दिन को घूमने-फिरने का दिन मानने लगे। तभी तो भई वोट डालने वालों का प्रतिशत गिरता जा रहा है। हम भले ही अपने कीमती वोट की कद्र न जाने, लेकिन नेता लोग हमारे वोट की कीमत खूब जानते है। तभी तो अब विधानसभा चुनावों से पहले जगह-जगह शिलान्यास और उद्घाटन हो रहे है। इसके साथ ही सड़कों को तुड़वाकर दोबारा बनवाने और नालों की सफाई करवाने जैसे काम जोर-शोर से चल रहे हैं। तो कहीं सस्ती प्याज बेची जा रही है। और तो और बस स्टैड़ों और सड़कों पर लगे सरकार के विज्ञापन भी विकास ही विकास बता रहे हैं। सरकार के विज्ञापनों का नारा भी है यहां विकास दिखता है 
इन दिनों अखबार या टीवी चैनलों पर जो कभी राजनीति, सिनेमा और अपराध की खबरों से पटे होते थे। वहीं अखबार और चैनल अब स्कूलों के उद्घाटन या सामुदायिक भवन के शिलायन्स या फिर किसी नई योजना के शिलान्यस की खबरें प्रकाशित या प्रसारित कर रहे हैं। वरना पहले तो विकास की खबरें ढूंढने पर भी नहीं मिलती थी। शायद यह चुनाव का ही असर है।
चुनावी आचार संहिता लागू होने के डर से नेताओं ने ताबड़तोड़ शिलायान्स किए। विधानसभा चुनाव को देखते हुए सरकार हो या विपक्षी पार्टी सभी शिलान्यास और उद्घाटन या नई योजनाओं को शुरू करने में व्यस्त है। दिल्ली सरकार के मंत्री ई-सब रजिस्ट्रार के कार्यालय, नए स्कूलों का उद्घाटन कर रहे और नई योजनाओं को भी हरी झंड़ी दे रहे। और तो और चंद दिनों में ही खाद्य सुरक्षा कानून, भूमि अधिग्रहण कानून और पेंशन फंड जैसे विधेयक भी आसानी से पास हो गए, जो काफी समय से लटके थे। खैर ये तो होना ही था, चुनाव जो नजदीक है। सरकार के विज्ञापनों और विकास की खबरों से ऐसा लगता है कि जैसे विकास की बाढ़ आई हो।
ऐसा सिर्फ दिल्ली में ही नहीं हो रहा है, मध्यप्रदेश में तो एक मंत्री ने आठ घंटे में दो हजार पांच सौ इक्यावन परियोजनाओं का शिलायान्स कर एक तरह का रिकॉर्ड बना दिया। आखिर चुनाव के नजदीक आते ही हर तरफ विकास कार्य क्यों दिखाने की कोशिश की जाती है। भई हम लोग अपने कीमती वोट की कीमत जाने या न जाने पर हमारे नेता लोग तो हमारे वोटों की कीमत बखूबी जानते हैं। तभी तो चुनावों से पहले विकास की बाढ़ आ जाती है। चुनाव के बहाने ही सही कुछ विकास कार्य तो हो जाता है। लेकिन हम लोग है कि फिर भी कहते है कि वोट देने का क्या फायदा। वोट का ही तो फायदा है जो चुनाव से पहले हमारे नेता लोग विकास कार्य करवाने लगते हैं। यह विकास कार्य हम लोगों के वोट पाने के लिए ही तो हो रहा है। भई विकास और विकास के विज्ञापन नहीं होंगे, तो भला नेताओं को वोट कैसे मिलेंगे। 


मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

बढ़ते उपभोक्ता या विकास

                                   
पिछले महीने जब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने सांख्यिकी पुस्तिका-2013 जारी की। तब उसमें दर्ज आंकड़ों के आधार पर हिन्दी और अंग्रेजी के बड़े-बड़े अखबारों ने दिल्ली को देश का संपन्न राज्य बता दिया। दिल्ली सरकार ने विकास के आंकड़ों के जरिए विकास और समृद्धि को बताने की बखूबी कोशिश की। लेकिन सवाल ये है कि विकास क्या है। सामान्यतः विकास एक ऐसी प्रक्रिया को कहते है जिसके अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, तकनीकी आदि क्षेत्रों में न्यूनतम विकास हुआ हो, जिससे मनुष्यों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके। लेकिन अब लगता है कि विकास की परिभाषा बदलने की कोशिश की जा रही है। सिर्फ आर्थिक विकास को ही विकास बताने पर जोर दिया जा रहा है।

सांख्यिकी पुस्तिका की खबरों को जिस तरह से अखबारों ने प्रस्तुत किया। उससे तो लगता है कि दिल्ली पूरी तरह से विकसित हो चुकी है। अब दिल्ली जैसे राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार विकास के मानकों में शामिल नहीं होते है  और मीडिया की प्राथमिकताओं में भी अब स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी और रोजगार जैसे मुद्दे नहीं रह गए है। शायद इसी वजह से ज्यादातर अखबारों ने राजधानी में शराब पीने वालों की संख्या और उसकी खपत की मात्रा में बढ़ोत्तरी को बताया और 1.07 लाख लोगों के प्रतिदिन सिनेमा देखने को बताना जरूरी समझा। इसके साथ ही निजी वाहनों की संख्या बढ़ने और प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी को विकास बताने की कोशिश की गई। सांख्यिकी पुस्तिका में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार और अपराध संबंधी जानकारी भी सम्मलित होती है, लेकिन किसी भी अखबार ने इन क्षेत्रों के आंकड़ों प्रमुखता नहीं दी।  

सरकार के इन आंकड़ों की पड़ताल कर खबर बनाने के बजाय उसे जनता के सामने उसी तरह से रख दिया गया, जिस तरह के आंकड़े सरकार ने प्रस्तुत किये। दूसरी बात यह है कि कैसे आज निजी वाहनों के बढ़ने, ज्यादा लोगों के शराब पीने और सिनेमा देखने को विकास के रूप में बताने और विकास की एक नई परिभाषा गढ़ने की कोशशि हो रही है। लोगों के अब उपभोक्ता बनते जाने और उनकी बढ़ती संख्या को ही विकास कहा जाने लगा है।  सरकार इसी अवधारणा को विकास मानने के लिए दूसरों लोगों को भी बाध्य कर रही है। अहम बात यह है कि मीडिया भी सरकार के विकास को विकास बताने में लगा है।

सरकार द्वारा प्रस्तुत सांख्यिकी पुस्तिका के आंकड़ों को ही अगर लिया जाए। तो सरकार के मुताबिक अब दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक है, लेकिन वहीं यह भी एक हकीकत है कि राजधानी दिल्ली में ही 44 फीसदी लोग गरीब भी है। जिनको सरकार खाद्य सुरक्षा कानून का लाभ देना चाहती है। भला यह कैसे हो सकता है कि सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य में 44 फीसदी लोग गरीब हो। शिक्षा की अगर बात करें तो अब सेकेण्डरी और सीनियर सेकेण्डरी स्तर पर निजी स्कूलों की भागेदारी 43 फीसदी तक पहुंच गई है। वहीं मानव विकास रिपोर्ट 2013 के मुताबिक सरकार की सेवाओं का लाभ दिल्ली में सभी लोगों को समान रुप से नहीं मिल रहा है और यहां प्रति 10,000 लोगों पर कुल 4 डॉक्टर उपलब्ध है। इस रिपोर्ट को अगर देखा जाए तो दिल्ली को कैसे विकसित राज्य बताया जा सकता है।

बुधवार, 4 सितंबर 2013

आंकड़ों में उपलब्धियों के मायने


दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने में अब ज्यादा समय नहीं बचा है। इन चुनाव को देखते हुए राज्य सरकारें अपनी उपलब्धियों के जरिए जनता को रिझाने में जुटी है। जैसा कि हर बार होता है, लेकिन इस बार चुनाव के लिए तैयार किए विज्ञापनों में एक बदलाव देखने को मिल रहा। दिल्ली और राजस्थान के कुछ विज्ञापन अखबारों और बस स्टैंडों पर देखने को मिलें। इन विज्ञापनों में सरकार की उपलब्धियों को आंकड़ों के जरिए बताया जा रहा है।

भूमंडलीकरण के दौर में आंकड़ों का खेल ही विकास का आईना बना हुआ है। आज सूचना क्रांति के युग में जहां एक खबरदाता सिर्फ सूचनादाता बनकर रह गया है। यह खबरनवीस कहा जाने वाला व्यक्ति हमें आंकड़ों के जरिए खबर के नाम पर सिर्फ सूचनाएं दे रहा है और सूचनाओं के लिए आंकड़ों का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। आंकड़ों से सूचनाएं बनाने की प्रवृत्ति पर शोध पत्रिका जन मीडिया में छपी एक टिप्पणी में यह उल्लेख किया गया है कि आंकड़ों के बीच तुलना करने की क्षमता विकसित कर ली जाए, तो जन संचार माध्यमों के लिए तरह-तरह की सामग्री तैयार की जा सकती है।

दिल्ली सरकार के एक विज्ञापन के अनुसार दिल्ली में अब 44 लाख छात्रों का नामांकन है। इस विज्ञापन के आंकड़ों से उपलब्धि तो स्पष्ट तौर दिखाई जा रही है। लेकिन इस उपलब्धि के आंकड़ों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि निजी और सरकारी स्कूलों में नामांकन की स्थिति क्या रही। लड़के और लड़कियों के नामांकन की स्थिति क्या है। दिल्ली में जिस अनुपात में आबादी बढ़ रही, क्या उसी अनुपात में स्कूलों में नामांकन हो रहा है। साथ ही सिर्फ नामांकन से शिक्षा क्षेत्र की स्थिति भी स्पष्ट नहीं हो पाती है। इसी प्रकार राजस्थान के विज्ञापनों में भी आंकड़ों के जरिए उपलब्धियों को बताया जा रहा है। इस प्रकार समझा जा सकता है कि आंकड़े विकास को बताने में सहायक हो सकते हैं, लेकिन आंकड़ों से विकास को परिभाषित नहीं किया जा सकता।
आंकड़ों का इस्तेमाल हम अपनी सुविधानुसार करते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर दिल्ली में मरीजों की संख्या बढ़ जाएं, तो उस बढ़े हुए आंकड़े को विकास नहीं कहा जाएगा। लेकिन जब अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बढ़ जाएगी, तो उस बढ़े हुए आंकड़े को विकास कहा जाएगा। आंकड़ों का इस्तेमाल एक उद्देश्य के साथ किया जाता है। एक पत्रकार अपनी स्टोरी के लिए आंकड़ों का प्रयोग करता है। वहीं इस बार सरकार अपनी उपलब्धियों को बताने वाले विज्ञापन के लिए आंकड़ों का इस्तेमाल कर रही हैं।

जनसंचार माध्यम ही सरकार की भाषा है और सरकार ही जनसंचार माध्यम है। एक शोधार्थी के अनुसार आंकड़े जनसंचार माध्यम में आकर दो हिस्सो में बंट जाते है। आंकड़ों से जो सूचनाएं निकलती है, उसे प्रस्तुत करने के बजाए,  जिस तरह की सूचनाएं जनसंचार माध्यम देना चाहते है, उसके हिसाब से आंकड़ों को ढालते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक आंकड़े का जैसे चाहे इस्तेमाल किया जा सकता है और आंकड़ों से तरह-तरह की सूचनाएं तैयार की जा सकती है। सरकार अपनी सुविधानुसार आंकड़ों का अविष्कार करके जनसंचार माध्यम के जरिए विकास की उपलब्धियों को बता सकती है और उन्हीं आंकड़ों से एक पत्रकार कई तरह की खबरें बना सकता है।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आंकड़ों का इस्तेमाल कच्चे माल के रूप में किया जाता है। यह चुनौतीपूर्ण स्थिति है कि कैसे जनसंचार माध्यमों के जरिए सूचनाओं को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है और उसे रोकने के लिए कोई विधि हमारे पास नहीं है।

                                                                                                                संजय कुमार बलौदिया










रविवार, 1 सितंबर 2013

कायम हैं कूवर की चुनौतियां


राष्ट्रीय सहारा-हस्तक्षेप-31-08-13

कोलंबो के डॉ अब्राहम कूवर ने आधी शताब्दी तक हर प्रकार के मानसिक, अर्ध मानसिक एवं आत्मिक चमत्कारों की बहुत ही गहराई तक खोज की और अंत में इस परिणाम पर पहुंचे कि ऐसी बातों में लेश-मात्र भी सत्य नहीं होता। इस संसार के मनोचिकित्सकों में वह अकेला ऐसे थे, जिनको इस क्षेत्र में खोज करने के परिणामस्वरूप पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त हुई
डॉ. अब्राहम कूवर प्रख्यात मनोचिकित्सक

देश के विभिन्न हिस्सों में अंधविश्वास के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं। कहीं तर्कशील, ह्मूनिस्ट, रैशनिलिस्ट तो कहीं विज्ञान के प्रचार-प्रसार के नाम पर चल रहे हैं। इन सबका उद्देश्य समाज में विभिन्न स्तरों पर व्याप्त अंधविश्वासों की स्थितियों को खत्म करना है। ऐसे ही एक प्रयास भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में शुरू हुआ था और उस आंदोलन के अनुभवों से भारत के आंदोलनों को काफी कुछ सीखने को मिला है। डॉक्टर अब्राहम कोवूर दुनिया के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक एवं सचेत वैज्ञानिक थे। वह श्रीलंका के तर्कशील विद्वानों की एक संस्था का प्रधान थे। उन्होंने लगभग आधी शताब्दी तक हर प्रकार के मानसिक, अर्ध मानसिक एवं आत्मिक चमत्कारों की बहुत ही गहराई तक खोज की और अंत में इस परिणाम पर पहुंचे कि ऐसी बातों में लेश-मात्र भी सत्य नहीं होता। इस संसार के मनोचिकित्सकों में वह अकेला ऐसे थे, जिनको इस क्षेत्र में खोज करने के परिणामस्वरूप पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त हुई। अमेरिका की मिनसोटा संस्था ने उनके मनोवैज्ञानिक एवं ऐसे ही अन्य चमत्कारों की खोज के फलस्वरूप उसको पीएच.डी. की डिग्री प्रदान की। कोवूर ने एक पर्चा निकाला, जिसका शीर्षक था- चुनौतियां । उसमें उन्होंने लिखा : ‘मैं अब्राहम टी कोवूर, तिरूविल्ला, पमानकाडा लेन, कोलंबो-6 का निवासी, यह घोषणा करता हूं कि मैं श्रीलंका के एक लाख रुपये का ईनाम संसार के किसी भी ऐसे व्यक्ति को देने के लिए तैयार हूं, जो ऐसी स्थिति में, जहां धोखा न हो, कोई चमत्कार या अलौकिक शक्ति का प्रदशर्न कर सकता हो। यह पेशकश मेरी मृत्यु तक या इससे पहले ईनाम जीतने वाले के मिलने तक खुली रहेगी। देवपुरु ष, संत, योगी, सिद्ध, गुरु , स्वामी एवं अन्य दूसरे जिन्होंने आत्मिक क्रिया-कलापों से या परमात्मा की शक्ति से शक्ति प्राप्त की है, इस ईनाम को निम्नलिखित चमत्कारों में से किसी एक का प्रदशर्न करके जीत सकते हैं : जो सीलबंद करेंसी का क्रमांक पढ़ सकता हो। जो किसी करेंसी नोट की ठीक नकल पैदा कर सकता हो। जो जलती हुई आग पर, अपने देवता की सहायता से, आधे मिनट तक नंगे पैरों पर खड़ा हो सकता हो। ऐसी वस्तु, जिसकी मैं मांग करूं हवा में से पेश कर सकता हो। मनोवैज्ञानिक शक्ति से किसी वस्तु को हिला या मोड़ सकता हो। टेलीपैथी के माध्यम से, किसी दूसरे व्यक्ति के विचार पढ़ सकता हो। प्रार्थना आत्मिक शक्ति, गंगाजल या पवित्र राख से अपने शरीर के अंग को एक इंच बढ़ा सकता हो। जो योग शक्ति से हवा में उड़ सकता हो। योग शक्ति से पांच मिनट के लिए अपनी नब्ज रोक सकता हो। पानी के ऊपर पैदल चल सकता हो। अपना शरीर एक स्थान पर छोड़कर दूसरे स्थान पर प्रकट हो सकता हो। योग शक्ति से तीस मिनट तक अपनी श्वास क्रिया रोक सकता हो। रचनात्मक बुद्धि का विकास करे या भक्ति या अज्ञात शक्ति से आत्मज्ञान प्राप्त करें। पुनर्जन्म के कारण कोई अद्भुत भाषा बोल सकता हो। ऐसा आत्मा या प्रेत को पेश कर सके, जिसकी फोटो ली जा सकती हो। फोटो लेने के उपरांत फोटो में से गायब हो सकता हो।
ताला लगे कमरे में से आलौकिक शक्ति से बाहर आ सकता हो। किसी वस्तु का भार बढ़ा सकता हो। छुपी हुई वस्तु को खोज सके। पानी को शराब या पेट्रोल में परिवर्तित कर सकता हो। ऐसे ज्योतिषी या पांडे, जो यह कहकर लोगों को गुमराह करते हैं कि ज्योतिष और हस्तरेखा एक विज्ञान है, मेरे ईनाम को जीत सकते हैं। यदि वे दस हस्त चित्रों या ज्योतिष पत्रिकाओं को देखकर आदमी और औरत की अलग-अलग संख्या, मृत और जीवित लोगों की संख्या का जन्म का ठीक समय व स्थान, आक्षांश-रेखांश के साथ बता दें। इसमें पांच प्रतिशत गलती माफ होगी। नोट : यह चुनौती निम्नलिखित शर्तों के साथ क्रियान्वित होगी। जो व्यक्ति मेरी इस चुनौती को स्वीकार करता है, यद्यपि वह ईनाम जीतना चाहता हो या नहीं, उसे मेरे पास या मेरे नामजद किए हुए व्यक्ति के पास, एक हजार रु पये जमानत के रूप में जमा कराने होंगे। यह पैसे ऐसे लोगों को दूर भगाने के लिए हैं, जो सस्ती शोहरत की खोज में हैं। नहीं तो ऐसे लोग मेरा धन, शक्ति और कीमती समय को बेकार में ही नष्ट कर देंगे। यह रकम जीतने की हालत में वापस कर दी जाएगी। किसी व्यक्ति की चुनौती उस समय स्वीकार की जाएगी, जब वह जमानत के पैसे जमा करा देगा। जो ऐसा नहीं करता उसके साथ किसी प्रकार का पत्र व्यवहार नहीं किया जाएगा। जमानत जमा कराने के बाद, किसी व्यक्ति के चमत्कार का सर्वप्रथम मेरे द्वारा नामजद किए हुए व्यक्ति द्वारा लोगों की उपस्तथिति में किसी निश्चित दिनांक को परीक्षण किया जाएगा। यदि वह व्यक्ति परीक्षण का सामना नहीं कर सकता या आरंभिक परीक्षण में ही असफल हो जाता है तो उसकी जमानत जब्त कर ली जाएगी। यदि वह इस आरंभिक जांच-पड़ताल में सफल हो जाता है, तो अंतिम जांच मेरे द्वारा लोगों की उपस्थिति में की जाएगी। -यदि कोई व्यक्ति इस अंतिम जांच पड़ताल में जीत जाता है, तो उसको एक लाख रु पये का ईनाम जमानत की राशि के साथ दे दिया जाएगा। सभी परीक्षण, धोखा न होने वाली स्थिति में और मेरी या मेरे द्वारा नामजद किए हुए व्यक्ति की पूर्ण तसल्ली तक किए जाएंगे। यद्यपि डॉक्टर कोवूर यह चुनौती 1963 ईस्वी में आज से 20 वर्ष पूर्व दी थी और यह दुनिया के सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी लेकिन आज तक कोई भी व्यक्ति उनसे एक रु पया भी जीत नहीं सका। उनकी चुनौती की कॉपियां चमत्कारों को नंगा करने की उसकी दो मुहिमों से पहले भारत के बहुत से ज्योतिषी, हस्तरेखा निपुण देवपुरु ष एवं देवस्त्रियों को 1975 में भेजी गई। सिर्फ बेंगलुरु में एक डॉक्टर ने उनकी चुनौती को स्वीकार किया और जमानत के एक हजार रुपये जमा करवा दिए। परिणाम यह निकला कि डॉ कोवूर एक हजार रूपये के साथ अपनी मुहिम से वापस श्रीलंका पहुंच गए। डॉ कोवूर उन व्यक्तियों के लिए खौफ थे, जो भोले-भाले लोगों को चमत्कार या अलौकिक शक्तियों का डर पैदा करके लूटते थे। पृथ्वी पर से भ्रमों को खत्म करने की उसकी कोशिश में, डॉक्टर कोवूर बीसवीं शताब्दी में सबसे महान व्यक्तित्व के रूप में उभरे हैं।

प्रस्तुति : संजय कुमार बलौदिया

बुधवार, 14 अगस्त 2013

सरकार के विज्ञापनों में विकास दिखता है



भाईया दिल्ली में चुनाव होने में अब ज्यादा समय नहीं बचा है। इसलिए दिल्ली सरकार अपनी उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा रही है। सरकार ने बस स्टैडों को विकास की उपलब्धियों वाले विज्ञापनों से पाट दिया है। विज्ञापनों में सरकार कह रही है कि देखो जनता, पिछले दस सालों में हमने कितना विकास किया। सच है, भई विज्ञापनों के आंकड़ों में तो विकास दिख ही रहा है। खैर, इन विज्ञापनों से बस स्टैंडों का विकास भी हो ही गया। रात में बिजली की चमक से चमकते सरकार की उपलब्धियों के इन विज्ञापनों से मानो ऐसा लगता है जैसे हर तरफ विकास ही विकास हो रहा है।
यह तो हुई सरकार के विज्ञापनों में विकास की बात। अब बात कर लें उस विकास की, जिसे सरकार शायद बताने में हिचक  रही है। वह विकास है, अपराध के ग्राफ का ऊपर की ओर बढ़ना। भई, जैसे सरकार विज्ञापनों में आंकड़ों के बढ़ने को विकास बता रही तो भला अपराध के आंकड़े भी तो बढ़े हैं, फिर उन्हें विकास बताने से परहेज क्यों। सरकार को वोट चाहिए और वोट, अपराध के विकास को बताने से तो कतई नहीं मिलेंगे। सरकार बता रही है कि अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बढ़ गई, बिजली ग्राहकों की संख्या बढ़ गई और फ्लाईओवर भी पहले के मुकाबले बढ़ गए है और न जाने क्या-क्या।   
लगता है कि सरकार शायद ये भूल गई है कि लापता बच्चों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, बलात्कार के मामले भी बढ़ रहे हैं और झपटमारी की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं। और तो और दिल्ली के तालाब भी अब पहले के मुकाबले ज्यादा सूखते जा रहे। मीड-डे मील के 100 से 88 नमूने फेल हो रहे हैं। भई एक बात अब मान ही लेनी चाहिए कि चौतरफा विकास ही विकास है और कुछ नहीं। चाहे सरकार के विकास के बढ़ते आंकड़े या फिर क्राइम की रिपोर्ट के बढ़ते आंकड़े या मीड-डे मील के फेल होने वाले नमूनों की बढ़ती संख्या देख लीजिए। इन सब में विकास  ही नजर आएगा और कुछ नहीं।
जनता कहती रहती है कि विकास नहीं हो रहा है, भई यहां तो विकास ही विकास हो रहा है। फिर क्यों जनता कहती है कि विकास नहीं हो रहा। शायद जनता अभी तक सरकार के आंकड़ों वाले विज्ञापनों को समझ ही नहीं पाई। खैर, कोई बात नहीं अभी चुनाव में कुछ समय है, तब तक जनता भी रोजाना इन विज्ञापनों को देखकर समझ ही जाएगी कि विकास हो रहा है।
                






बुधवार, 3 जुलाई 2013

शिक्षा संस्थानों को बाजार के हवाले करने का विरोध है

शिक्षा के बाजारीकरण पर चिंता जताते हुए दो दशक पहले शिक्षा विभाग के अध्यक्ष कृष्ण कुमार ने एक लेख में लिखा था कि हमारे देश में दो तरह के स्कूल बन रहे है। पहली किस्म का स्कूल जिसे उन्होंने खुला स्कूल कहा, जिसमें हरेक बच्चे को कई तरह की सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों से आने वाले बच्चों से संबंध बनाने का मौका देता है। दूसरी तरफ फीस देने की क्षमता या तथाकथित योग्यता के आधार पर बच्चों को चुनने वाला स्कूल, जिसे उन्होंने बंद स्कूल कहा था। तब से लेकर अब तक हमारे देश में दो तरह के स्कूलों का विकास होता गया और आज शिक्षा के ढांचे को केवल बाजार की जरुरत के अनुसार खड़ा करने की कोशिश हो रही है। जबकि शिक्षा से व्यक्ति का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास जुड़ा होता है। इस कारण सिर्फ बाजार की जरुरत के अनुसार शिक्षा का ढांचा खड़ा करने से क्या व्यक्ति का पूर्णतः विकास हो पायेगा। वहीं इससे शिक्षा के स्तर में भी गिरावट आएगी। बाजार के अनुरुप शिक्षा का ढांचा खड़ा करके हम सिर्फ कामगार लोगों की संख्या जरूर बढ़ा लेगें, लेकिन जागरूक नागरिक नहीं बना पायेंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय कोर्स की शुरुआत भले ही अब हुई है, लेकिन इसकी शुरुआत तो तभी हो गई थी जब हमारे स्कूलों में कक्षा आठवीं तक बिना किसी परीक्षा या मूल्यांकन के विद्यार्थी को अगली कक्षा में भेजने की अनिवार्यता दे दी गई थी। इससे शिक्षितों के आंकड़े तो बढ़े लेकिन बुनियादी शिक्षा का स्तर भी गिरता गया है। स्थिति यह है कि कक्षा पांचवी का छात्र दूसरी कक्षा की किताबें नहीं पढ़ पाता है। अब दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्नातक स्तर पर बुनियादी कोर्स के नाम पर फाउंडेशन कोर्स पढ़ाने की राह निकाल ली है। वहीं अब सीबीएसई भी आठवीं के बाद व्यावसायिक पाठ्यक्रम को पढ़ाने की योजना बना रहा है। सवाल शिक्षा का स्तर बनाम बाजार के अनुरुप शैक्षणिक संस्थानों का ढांचा खड़ा करने की योजना से जुड़ा है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में काफी गहमा-गहमी के बाद चार वर्षीय कोर्स लागू कर दिया। लेकिन अभी भी इस कोर्स को लेकर विरोध थमता नजर नहीं आ रहा है। बुनियादी तौर पर ये तीन वर्ष के कोर्स को चार वर्ष में बदलने से नहीं जुड़ा है और ना ही चार वर्ष के कोर्स का ही विरोध करने तक सीमित है। बुनियादी तौर पर विरोध में वह चिंता शामिल है जिसमें बाजार को ध्यान में रखकर पढ़ाई लिखाई का ढांचा व वातावरण विकसित किया जा रहा है। इस चार वर्षीय कोर्स में चार तरह के कोर्स छात्रों को पढ़ाए जाएंगें जिसमें पहला फाउंडेशन कोर्स यानी बुनियादी पाठ्यक्रम। इसमें 11 पेपर होंगे। यह पेपर आटर्स, साइंस और कॉमर्स के सभी छात्र-छात्राओं के लिए अनिवार्य है। दूसरा डिसिप्लिन वन है, यह मुख्य कोर्स है। तीसरा डिसिप्लिन टू है, इसमें डिसिप्लिन वन के सहायक पेपर पढ़ाए जाएंगे। चौथा एप्लाइड कोर्स है, यह स्किल ( दक्षता या कौशलता ) आधारित कोर्स है। चार वर्षीय कोर्स भले ही एक नजर में अच्छा लगे, लेकिन इसमें खामियों की पड़ताल एक बुनियादी जरूरत है। इस कोर्स को लागू करते हुए यह कहा जा रहा है कि कोर्स छात्र-छात्राओं के हित में है और इससे छात्र-छात्राओं को रोजगार के अधिक अवसर मिलेंगे। डीयू के कुलपति दिनेश सिंह का भी कहना है कि कोर्स तैयार करने में बाजार का ध्यान रखा गया है और साथ ही इसमें व्यावहारिक ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया गया है। यह तो हम सभी जानते है कि काफी समय से उच्च शिक्षा में सुधार को लेकर चर्चा हो रही है, लेकिन क्या सिर्फ स्नातक की डिग्री को चार साल का करने देने से उच्च शिक्षा में सुधार हो जाएगा ?  सुधार की प्रक्रिया पहले प्राथमिक स्तर पर शुरू होनी चाहिए। यदि वास्तव में मंशा लोकतंत्र के अनुरूप शिक्षा के ढांचे को खड़ा करने की है।

जब पहले ही छात्र-छात्राएं 12 वीं कक्षा तक तमाम विषयों के बारे में परिचयात्मक ज्ञान हासिल कर लेते है और आगे की पढ़ाई अपनी विषय रुचि के अनुसार करते रहे है। तो उन्हें स्नातक स्तर पर बुनियादी विषय को थोपने की दलील समझ से परे हैं। वहीं इस कोर्स को पढ़ाने के लिए पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी नहीं है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी रिक्त पदों को लेकर चिंता जाहिर की है। वहीं अगर पाठ्यक्रम की बात करें, कहा जा रहा है कि इसकी चार साल से तैयारी चल रही थी। लेकिन सवाल यह है कि चार साल की तैयारी के बाद भी कोर्स डीयू के प्रोस्पेक्ट्स से गायब क्यों है। प्रोस्पेक्ट्सों में कोर्स का न होना भी चार वर्षीय पाठ्यक्रम की हड़बड़ी बताता है। 

एक और नई सिफारिश यह है कि अब छात्रों को सभी प्रश्नपत्रों को मिलाकर 45 फीसदी अंक लाने होंगे। इसका मतलब यह है कि किसी छात्र को अगर एक पेपर में 20 अंक भी मिलते है, तब भी उसे डिग्री मिल जाएगी। इस सिफारिश से कोर्स को लेकर विरोधाभास की स्थिति नजर आ रही है। इस कोर्स के जरिये बाजार के अनुरूप शैक्षणिक संस्थानों को ही खड़ा करना भर नहीं है। दरअसल शैक्षणिक संस्थान पूरी राजनीतिक व्यवस्था के ही हिस्से होते है। एक संकट ये खड़ा हो रहा है कि बेरोजगारी के आंकड़ें बेतहाशा बढ़ रहे हैं। इस तरह के कोर्स से उन आंकड़ों के ग्राफ्स और गति को कमतर दिखाया जा सकता है। एक सरल सा तर्क है कि जो स्नातक की डिग्रीधारी पहले तीन वर्षों के बाद नौकरी मांगते थे अब वे चार वर्ष में ही नौकरियों के लिए मार्केट में हकदार हो सकते हैं।

डीयू के चार वर्षीय पाठ्यक्रम लागू करने से जहां शिक्षा प्रणाली दो तरह की हो जाएगी। वहीं डीयू के छात्रों को अन्य विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए दो साल का ही समय देने होगा। इस कोर्स से समय और पैसे दोनों की बर्बादी होगी। यह शिक्षा के बाजार के हित में है। इससे निजी शिक्षा संस्थानों को लाभ मिलेगा।अब छात्र डिप्लोमा करने के बाद ही नौकरी के लिए दौड़ने लगेंगे। जितने ज्यादा लोग नौकरी के लिए दौड़ते है वह स्थिति बाजार के हित में होती है। वहीं डिग्रीधारी छात्र से डिप्लोमा धारी छात्र का आत्मविश्वास भी कम होगा। शिक्षा के बदलाव से बाजार का विकास होगा, व्यक्ति का विकास नहीं हो पाएगा।
 


मंगलवार, 25 जून 2013

छात्रवृत्ति से वंचित रखने के विचार की पहचान

                                                             
अभी कुछ समय पहले ही राजीव गांधी राष्ट्रीय फेलोशिप की योजना के लिए 125 करोड़ रुपये के आवंटन को घटाकर 25 करोड़ कर दिया है। इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह फेलोशिप अनुसूचित जाति के छात्र-छात्राओं को वित्तीय सहायता देकर उन्हें सशक्त बनाने के लिए है। इसका कारण यह बताया जा रहा है कि यूजीसी ने न तो लाभार्थियों की सूची पेश की और न ही पिछले वर्षों के 150 करोड़ रुपये के उपयोगिता प्रमाणपत्र पेश किए। ऐसा सिर्फ इस फेलोशिप या छात्रवृत्ति के साथ नहीं है। बल्कि उच्च शिक्षा के स्तर पर देखे तो पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना के तहत केंद्र सरकार एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरटी के छात्र-छात्राओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाकर उनकी उच्च शिक्षा में भागीदार को बढ़ाना चाहती है, लेकिन ऐसा पूर्ण रूप से नहीं हो पा रहा है। यहां भी उसी जटिल प्रक्रिया के नाम पर छात्रों को वर्ष के अंत में छात्रवृत्ति मिलती है या कभी-कभी मिलती ही नहीं है।

इसका एक उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय का अदिति कॉलेज है। कॉलेज की छात्राओं ने आरटीआई का उपयोग कर छात्रवृत्ति संबंधी कुछ सूचनाएं जुटाई। जिसमें यह जानकारी मिली कि 2011-12 में 102 छात्राओं ने ही छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किए, जबकि छात्रवृत्ति योग्य छात्राओं की संख्या 207 है। इससे यह पता चलता है कि 95 छात्राओं को छात्रवृत्ति संबंधी की जानकारी ही नहीं मिली या किसी कारण से वह आवेदन नहीं कर सकी। आवेदन करने वाली 102 छात्राओं में से किसी को भी छात्रवृत्ति नहीं मिली है। तब तीन छात्राओं ने आवेदन भरने के बाद भी छात्रवृत्ति न मिलने का कारण जानना चाहा, तब उन्हें बताया गया कि उनके फार्मों में त्रुटियां थी। वहीं, जब छात्रसंघ की अध्यक्ष आरटीआई के माध्यम से छात्रवृत्ति संबंधी जानकारी मांगती है, तो यह बताया जाता है कि फार्म जमा ही नहीं हुए। इन सब बातों को देखकर लगता है कि इस कॉलेज में या तो घोर लापरवाही बरती जा रही या मामला कुछ ओर ही है। इसमें कॉलेज प्रशासन की लापरवाही तो साफ नजर आ रही है। वहीं, एक छात्रा के पिता द्वारा वाइस चासंलर से इस संबंध में दो बार शिकायतें करने के बाद भी इस मामले पर कोई कार्रवाई न होना यह दर्शाता है कि विश्वविद्यालय भी इस मामले की उपेक्षा कर रहा है।

दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके एक अदिति कॉलेज के इस वृतातं को महज एक उदाहरण के रूप में देखना चाहिए। आमतौर पर एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरटी छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति मुहैया नहीं हो पाने की स्थितियां तैयार करना एक साजिश के तौर पर दिखता है।वर्चस्ववाद एक विचार और वह समय और स्थितियों के अनुसार वंचितों को वंचित बनाए रखने के रूप तैयार करता है। आज के दौर में छात्रवृति से वंचित रखना पहले शिक्षा से दूर रखने के ही बराबर है।   गौरतलब है कि इस छात्रवृत्ति से सिर्फ इन छात्र-छात्राओं को आर्थिक मदद ही नहीं मिलती, बल्कि इनको अपने आप को सशक्त बनाने में भी मदद मिलती है।जहां छात्रवृत्ति  मिल जाती है वहां यह छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा हासिल कर लेते हैं। डा. भीम राव आम्बेडकर को मदद नहीं मिलती तो वे भी आज बतौर संविधान निर्माता हमारे सामने नहीं होते। यदि किसी एक भी छात्र को छात्रवृत्ति न मिले, तब उनकी मनोदशा का अंदाजा हम लगा सकते। आदिवासियों की दशा दिशा पर लिखते हुए रमणिका गुप्ता अपनी पुस्तक आदिवासी अस्मिता का संकट में भी बताती है कि सरकार वजीफा देती है आदिवासी छात्रों को, लेकिन आधा पैसा वितरण करने वाला रख लेता है और जो मिलता है, वह इतनी देर से कि उसका उपयोग पढ़ाई की जगह, दूसरी जगह हो जाता है।यानी दिल्ली और सुदूर आदिवासी इलाकों में एक ही तरह के विचार किन किन रूपों में सक्रिय हैं, इसकी थाह ली जा सकती है।

एक कॉलेज जब वाजिफे से वंचित करता है तो वह  दिन दूर नहीं होता है जब कॉलेज की छात्रवृत्ति में भी कटौती कर दी जाती है। राजीव गांधी छात्रवृति का उदाहरण सामने हैं। अब इसमें छात्राओं का क्या दोष है। दरअसल ये वर्चस्वादी विचार की सक्रियता है जो प्रशासन की लापरहवाही और  गलती के रूप में दिखती है और सजा छात्राओं को भुगतनी पड़ेगी। इस प्रकार की छात्रवृत्तियां इन छात्रों को प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही दी जाती है। ताकि आर्थिक रूप से कमजोर छात्र शिक्षा से वंचित न हो सके।

मजेदार बात है कि दिल्ली विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा को अधिकाधिक छात्रों तक पहुंचाने के लिए फीस माफी योजना बनाए जाने का प्रचार कर रहा है। इसके तहत अनूसचित जाति और जनजाति के साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर तबके के छात्रों की फीस भी माफ करेगा।लेकिन सवाल यह है कि जब पहले से मौजूद योजनाओं से छात्रों को वंचित रखने के विचार सक्रिय हो और उसे संरक्षण भी मिलता दिख रहा हो तो  इस नई योजना से क्या उम्मीद की जा सकती है। इस योजना को लाभकारी बनाने के लिए यह सुनिश्चित करना भी जरुरी है कि उन छात्रों को पर्याप्त मदद मिले, जो इसके योग्य हो।

                                                                                                                         संजय कुमार

सोमवार, 3 जून 2013

महिलाओं की अनदेखी करता है आकाशवाणी

-संजय कुमार

"...मीडिया स्टडीज ग्रुप के इस सर्वे में रेडियो के सर्वाधिक प्रसार और सुने जाने वाले चैनल आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से एक वर्ष के दौरान प्रसारित हुए 527 कार्यक्रम और उनमें विशेषज्ञ के तौर पर बुलाए गए 244 लोगों को विश्लेषण के तौर पर पेश किया गया। सर्वे बताता है कि कैसे आकाशवाणी के कार्यक्रमों से महिलाएं और ग्रामीण महिलाएं गायब होती जा रही है।..."


निजी एफएम चैनलों से होड़ करते हुए आकाशवाणी ने व्यापक बदलाव का मन बना लिया है। आकाशवाणी के इस बदलाव में युवाओं को लुभाना और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करना शामिल है। लेकिन आकाशवाणी के इस बदलाव ने अपने कई पारंपरिक श्रोताओं और प्राथमिकताओं को भी बदल दिया है। मसलन आकाशवाणी की ताकत भारत के ग्रामीण समाज और खासकर घरों में रहने वाली महिलाओं से है, लेकिन वह राष्ट्रीय स्तर पर आकाशवाणी के कार्यक्रमों से गायब हो रहा है।
 
अभी हाल ही में मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपने सर्वे में खुलासा किया कि कैसे महिलाएं और खासकर ग्रामीण महिलाएं आकाशवाणी के दायरे से बाहर हो रही हैं। ग्रुप की ओर से विजय प्रताप द्वारा किए गए इस सर्वे को संचार और मीडिया की शोध पत्रिका जन मीडिया ने अपने मई, 2013 अंक में प्रकाशित किया है। इस सर्वे के अनुसार एक वर्ष के दौरान आकाशवाणी में राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं पर केंद्रित केवल 1.52 प्रतिशत कार्यक्रम ही पेश किए गए। ये कार्यक्रम भी शहरी पृष्ठभूमि की महिलाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित रहे। आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र द्वारा महिलाओं पर केंद्रित कार्यक्रमों का अध्ययन करने के लिए इस समूह ने सूचना का अधिकार (2005) के तहत आवेदन के जरिये सूचनाएं एकत्रित की। मीडिया स्टडीज ग्रुप के इस सर्वे में रेडियो के सर्वाधिक प्रसार और सुने जाने वाले चैनल आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से एक वर्ष के दौरान प्रसारित हुए 527 कार्यक्रम और उनमें विशेषज्ञ के तौर पर बुलाए गए 244 लोगों को विश्लेषण के तौर पर पेश किया गया। सर्वे बताता है कि कैसे आकाशवाणी के कार्यक्रमों से महिलाएं और ग्रामीण महिलाएं गायब होती जा रही है।

आकाशवाणी का दावा है कि राष्ट्रीय लोक प्रसारक के रूप में वह सभी वर्ग के लोगों को सशक्त बनाने को वचनबध्द है। लेकिन यह तभी मुमकिन है जब सामाजिक दायित्व को ध्यान में रखकर आकाशवाणी पर प्रसारित किए जाने वाले अपने कार्यक्रमों को तैयार करे। कहा जाता है कि आकाशवाणी बहुजन हितायबहुजन सुखाय के अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिये कार्यरत है। इसकी पहुंच देश के 92% क्षेत्र और कुल जनसंख्या के 99.18% तक है।

निजी समाचार माध्यम शहरी और बहुसांकृतिक महानगरों (कॉस्मोपॉलिटन) की आबादी को अपना लक्षित समूह निर्धारित कर चुके हैं। इस स्थिति में देश के दूर दराज के इलाकों में रहने वाली आबादी की आकाशवाणी से ज्यादा अपेक्षा रहती है। जिसके जरिए वह अपनी समस्याओं और तकलीफ की वजहों को जानना व उसे साझा करना चाहेंगे। मगर आकाशवाणी में आयोजित कार्यक्रमों के विषय वस्तुओं में महिला, किसान, दलित-आदिवासी और पिछड़े व अल्पसंख्यक समाज के सवालों का अभाव दिखता है। इस अध्ययन के अनुसार यह चिंता ना तो केवल भारत की है और ना ही अभी की है, बल्कि महिलाओं के साथ भेदभाव का यह सिलसिला निरंतर चला आ रहा है। बीजिंग में हुए चौथे वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑफ वुमेन (1995) में मीडिया द्वारा महिलाओं के रुढ़िवादी छवि पेश किए जाने के संबंध में कहा था कि अभी भी कुछ श्रेणियों की महिलाएं मसलन गरीब, असहाय या वृद्ध महिलाएं जो अल्पसंख्य तबकों या जातिय समूहों से ताल्लुक रखती हैं, मीडिया से पूरी तरह गायब हैं। मीडिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर भारत में प्रथम प्रेस आयोग (1954) और द्वितिय प्रेस आयोग (1980) ने चिंता जाहिर की थी। दूसरे प्रेस आयोग द्वारा 1980 में कराए गए सर्वे में बताया गया कि दक्षिण भारत में कुल पत्रकारों में केवल 3 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। मीडिया स्टडीज ग्रुप के 2012 में किए गए सर्वे में भी यह बात सामने आई है कि भारतीय समाचार मीडिया में महिलाओं की संख्या केवल 2.7 प्रतिशत है। भारत में महिलाओं की आबादी करीब 49.65 करोड़ है, जिसमें ग्रामीण महिलाओं की हिस्सेदारी करीब 72.7 प्रतिशत और शहरी महिलाओं की 27.3 प्रतिशत है।


श्रम के क्षेत्र में कुल महिलाओं की हिस्सेदारी 25.7 प्रतिशत है, जिसमें ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी 31 और शहरी महिलाओं की करीब 11.6 प्रतिशत है। 85 प्रतिशत कामगार ग्रामीण महिलाएं या तो निरक्षर हैं या प्राथिमक शिक्षा ही ले सकी हैं । ये आंकड़े ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं के बारे में एक नजरिया तैयार करने के लिए काफी है। जिससे एक आम धारणा यह भी बनती है कि भारतीय समाज की विकास प्रक्रिया और श्रम में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण है। जबकि आकाशवाणी जैसे संचार माध्यम में उनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती है। सर्वे के अनुसार कभी किसी ग्रामीण महिला को आकाशवाणी के कार्यक्रमों में बातचीत के लिए नहीं बुलाया जाता। यह सर्वे बताता है कि आकाशवाणी से एक वर्ष के दौरान 527 कार्यक्रम प्रसारित किए गए और इनमें महिलाओं पर केवल 8 कार्यक्रम प्रसारित हुए। इस तरह से आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से वर्षभर के दौरान प्रसारित हुए कुल कार्यक्रमों में महिलाओं की हिस्सेदारी 1.52 प्रतिशत रही। आधी-आबादी को आकाशवाणी के कार्यक्रमों में इतनी कम हिस्सेदारी आम श्रोता या नागरिक के लिए हैरानी वाली बात हो सकती है लेकिन आकाशवाणी की संचालक संस्था प्रसार भारती के लिए यह चौंकाने वाली बात नहीं है। प्रसार भारती की वार्षिक रिपोर्ट देखे तो उसमें भी ये साफ-साफ दर्ज है कि प्राइमरी चैनल और स्थानीय प्रसारण केंद्र से महिलाओं पर केंद्रित केवल क्रमशः 2.1 और 1.2 प्रतिशत कार्यक्रम ही पेश किए गए।

सर्वे के अनुसार आकाशवाणी पर समय-समय पर बातचीत के लिए बुलाए जाने वाले विशेषज्ञों में भी घोर लैंगिक असमानता है। आकाशवाणी के हिंदी एकांश ने वर्ष 2011 के दौरान विभिन्न विषयों पर बातचीत के लिए 244 लोगों को बुलाया जिसमें केवल 27 महिलाएं थीं। बहरहाल आकाशवाणी में थोड़ी बहुत जो महिलाएं दिखती भी हैं तो वह शहरी पृष्ठभूमि की हैं। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर होने वाली बातचीत में ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं की सुरक्षा को नजरअंदाज कर शहरी महिलाओं को सुरक्षा की समस्या पर केंद्रित रहा।

आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र के हिंदी एकांश में वर्ष 2011 के दौरान बुलाए गए विशेषज्ञों का ब्यौरा

क्रम
कार्यक्रम में बुलाए गए विशेषज्ञ
संख्या
प्रतिशत
1.
पुरुष
217
88.93
2.
महिला
27
11.06

कुल
244
100
(स्रोत सूचना के अधिकार के जरिए मिली जानकारी पर आधारित)


विशेषज्ञ के तौर पर कार्यक्रमों में बुलाई गई महिलाएं पूरी तरह से शहरी पृष्ठभूमि की पढ़ी-लिखी, नौकरी पेशे से संबंधित थी। जिन 27 महिलाओं को आकाशवाणी ने बुलाया उसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि की कोई महिला शामिल नहीं है। (देखें तालिका)

आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र में वर्ष 2011 के दौरान बुलाए गए विशेषज्ञों में शामिल महिलाओं का ब्यौरा
क्रम
महिला विशेषज्ञ
पेशा
1.
डॉ राखी मेहरा
चिकित्सक
2.
अदिति टंडन
पत्रकार
3.
सविता देवी
पत्रकार
4.
डॉ अर्चना सिंह
एकडमिशियन
5.
अन्नपूर्णा झा
वरिष्ठ पत्रकार
6.
नलनी
पर्सनॉल्टी एक्सपर्ट
7.
डॉ लवलीन यडानी
चिकित्सक
8.
रचना पंडित
प्रिंसिपल, डीपीएस
9.
प्रो. सुशीला रामास्वामी
शिक्षक दिल्ली विश्वविद्यालय
10.
सुमन नलवा
डीसीपी दिल्ली पुलिस
11.
शोभना नारायण
नृत्यांगना
12.
विदुषी चतुर्वेदी
महिला कार्यकर्ता, लेखिका
13.
जयती घोष
-
14.
अदिति फडनीस
पत्रकार
15.
मोनिका चंसोरिया
-
16.
उमा शर्मा
-
17.
वर्षा जोशी
जनगणना निदेशक दिल्ली
18.
बरखा सिंह
अध्यक्ष महिला आयोग, दिल्ली
19.
अंजू भल्ला
निदेशक, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
20.
डॉ. रंजना कुमारी
निदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च
21.
डॉ. ऋतु प्रिया
कम्युनिटी मेडिसीन जेएनयू
22.
प्रो. सविता पांडे
जेएनयू
23.
वीणा सीकरी
पूर्व राजनयिक
24.
अनीता सेतिया
उपनिदेशक, शिक्षा विभाग
25.
अंकिता गांधी
जन संसाधन अनुसंधान संस्थान
26.
सुधा सुंदर रमण
महासचिव, एडवा
27.
गार्गी परसाई
पत्रकार
(स्रोत सूचना के अधिकार के जरिए मिली जानकारी पर आधारित)

महिलाओं के साथ भेदभाव के साथ ही यह बात भी उठती है कि महिलाओं की सत्ता संस्थानों में हिस्सेदारी कितनी है। आकाशवाणी को प्रसार भारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी दूरदर्शन के मुकाबले बड़ा संगठन मानते हैं, लेकिन वहां क श्रेणी के पदों पर केवल 14 प्रतिशत महिलाएं है, जबकि दूरदर्शन में 25 प्रतिशत है।

मीडिया स्टडीज ग्रुप के पूर्व में आकाशवाणी पर ही किए गए सर्वे में दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार की हकीकत को उजागर किया था। मसलन कि ऑल इंडिया रेडियो ने वर्ष 2011 के दौरान अनुसूचित जाति के मुद्दे पर सिर्फ एक कार्यक्रम सात नवंबर, 2011 को सरकारी नौकरियों में बढ़ती दलित आदिवासी अधिकारियों की संख्या को प्रस्तुत किया गया। हालांकि इसे केवल अनुसूचित जाति का मुद्दा कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि इसके साथ आदिवासी शब्द भी जुड़ा हुआ है जिनकी जनसंख्या आठ फीसदी से ऊपर है। जबकि, देश की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 15 फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह आकाशवाणी के कार्यक्रम तैयार करने वालों को आदिवासी सवाल नहीं सुझे या उसे समझा नहीं गया, जबकि यह समाज देश में सबसे संकटग्रस्त समाज है जो अपने अस्तित्व पर चौतरफा हमले का सामना कर रहा है। आकाशवाणी ने आदिवासी समस्या को लेकर कोई कार्यक्रम प्रसारित नहीं किए। वहीं देश में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की आबादी 27 फीसदी बताई जाती है और उस समाज के लिए भी सालभर में कोई कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं किया गया।

सार्वजनिक क्षेत्र का लोक प्रसारक होने के नाते उसके राष्ट्रीय कार्यक्रमों का स्वरूप लोकतांत्रिक होना चाहिए। लेकिन कार्यक्रमों का विषय चयन और उसके लिए आमंत्रित मेहमानों की सूची लोक प्रसारक के लोकातांत्रिक होने पर सीधा सवाल खड़ा करते हैं, और सर्वे से स्पष्ट होता है कि अपने लोकतांत्रिक होने की घोषणा की आकाशवाणी खुद ही उल्लंघन कर रही है। प्रसार भारती अधिनियम (1990) में आकाशवाणी के उद्देश्यों में महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और समाज के अन्य निर्बल वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए विशेष उपाय संबंधित मामलों में जागरूकता उत्पन्न करने को खास तौर से जगह दी गई है। लेकिन आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से प्रसारित हुए कार्यक्रमों का अध्ययन यह दिखाता है कि हकीकत में महिलाएं और खासकर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं आकाशवाणी के दायरे से लगभग बाहर हैं और साथ ही दलित, पिछड़े, आदिवासियों को भी पर्याप्त जगह नहीं दी गई।

(मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे पर आधारित रिपोर्ट)

संजय कुमार, आईआईएमसी से प्रशिक्षित पत्रकार हैं। 
दैनिक 'सी एक्सप्रेस' में काम करने के बाद 
फिलहाल मीडिया शोध जर्नल जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं। 
संपर्क snjiimc2011@gmail.com