बुधवार, 24 दिसंबर 2014

स्कूल में सजा की परम्परा और बच्चे

हमारे यहां स्कूलों में बच्चों को सजा देने या उनसे मारपीट की घटनाएं निरंतर हो रही हैं। सजा देने की प्रवृत्ति सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में दिखती है। उदाहरण के तौर पर यहां तीन घटनाओं को देखा जा सकता है। 8 नवंबर को कानपुर के विजय नगर स्थित राजकीय कन्या इंटर कॉलेज के छात्र विनीत कुमार को उसके शिक्षक ने ऐसी सजा दी जिससे आहत होकर उसने घर आकर फांसी लगा ली। 26 नवंबर को हरियाणा में फरीदाबाद के एक पब्लिक स्कूल में होमवर्क न करने पर आठवीं कक्षा के छात्र को अध्यापक ने चपरासी बनने की बात कही जिससे आहत होकर उसने खुद को आग लगा ली। 27 नवंबर को मध्य प्रदेश में रतलाम के सरकारी आदर्श माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक ने छठी कक्षा के छात्र को इतना पीटा कि उसकी नाक फूट गई। इस तरह की कई सारी घटनाएं देशभर में देखने को मिल जाएंगी।

इसी साल अगस्त में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय के डिपार्टमेंट ऑफ स्कूल एजुकेशन एंड लिटरेसी ने स्कूलों को निर्देश दिए थे, जबकि इस तरह की घटनाओं को रोकने का शिक्षा का अधिकार कानून 2009 में भी प्रावधान किया गया है। कानून की धारा 17 (1) में कहा गया है कि बच्चों को किसी भी तरह से शारीरिक दंड या मानसिक तौर पर उत्पीड़ित न किया जाए। धारा 17 (2) में कहा गया है कि धारा 17 (1) के उल्लंघन करने पर सेवा नियमों के तहत उस व्यक्ति पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। यहां सवाल उठता है कि इस तरह की घटनाएं क्यों नहीं रुक रही हैं।

दरअसल, हमारी शिक्षा व्यवस्था का पूरा ढांचा ही इसके लिए जिम्मेदार है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में बच्चों को सिखाया नहीं जाता, बल्कि रटाया जाता है ताकि वह परीक्षा में अधिक से अधिक अंक ला सके। शिक्षक पर पाठ्यक्रम को पूरा कराने और परीक्षा के लिए बच्चों को तैयार करने का दबाव होता है। यह पाठ्यक्रम ऊंचे शोध संस्थानों और अधिकारियों के कार्यालयों में बनाया जाता है जिसमें शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं होती है। इस वजह से भी बच्चों को सजा देने की घटनाएं बढ़ रही हैं। साथ ही देश में शिक्षक और बच्चों के बीच अनुपात ऐसा है कि वह छात्रों की क्षमताओं और आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दे पाते हैं और शिक्षक सिर्फ अपना पाठ्यक्रम पूरा करने पर ज्यादा जोर देता है।

हमारे यहां शिक्षक की जैसे-जैसे लाचारी बढ़ी है, उसी तरह से स्कूल में उसकी क्रूरता बढ़ती जा रही है। हमारी व्यवस्था में स्कूल को हिंसक बनाने वाले तत्व लगातार सक्रिय रहे हैं। विरासत चाहे अंग्रेजी राज से मानें, चाहे शिक्षा प्रणाली की स्थापना के पहले चल रही शिक्षा से, बच्चों पर हिंसा हमारी स्कूली संस्कृति का स्वीकृत अंग रही है। हमारे समाज में बच्चे को अनुशासन में रखने के लिए बच्चों के साथ मारपीट करने और उन्हें डराने की संस्कृति को स्वीकृति मिली हुई है। स्कूल का काम बच्चों की क्षमताओं और कौशल को विकसित करना होता है, लेकिन स्कूलों में उनकी क्षमताओं और कौशल को विकसित करने के बजाए बच्चों को कहा जाता है कि वह सीखने या पढ़ने लायक नहीं है जिससे बच्चे अपना आत्मविश्वास खो देते हैं और सजा दिए जाने के लिए भी खुद को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं।

इस बात को राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर) के स्कूलों में शारीरिक दंड अध्ययन से समझा जा सकता है। जिसमें कहा गया है कि निजी स्कूलों में बच्चों के साथ सरकारी स्कूलों के मुकाबले ज्यादा क्रूर व्यवहार होता है। इसी अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि लड़कें और लड़कियां दोनों सजा पाते हैं। जबकि हमारे समाज में यह धारणा बनी है कि लड़कियों को कम सजा मिलती है, जो कि गलत है। यह अध्ययन सात राज्यों में किया गया था।


चाइल्ड साइकलॉजी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस बात को मनाते है कि बच्चों को मार-पीट या डाटने के बजाए प्यार से समझाना चाहिए। हमारे समाज में अनुशासन को डाटने और मार-पीट करने तक सीमित कर दिया है। मार-पीट करने या डाटने के बजाए बच्चों को इस तरह से शिक्षित किया जाए कि वह अनुशासन के महत्व को समझे और वह खुद को अनुशासित रखें। महज शिक्षकों को मारपीट या सजा न देने के निर्देशों से सुधार नहीं होगा। शिक्षकों पर हावी दबावों को भी समझना होगा और शिक्षा व्यवस्था की खामियों में भी सुधार करना होगा, तभी इस तरह की घटनाओं में कुछ कमी आ सकती हैं। 

रविवार, 7 दिसंबर 2014

आजादी बनाम सुरक्षा संदर्भ सीसीटीवी कैमरा

हरियाणा रोडवेज की बस में छेड़छाड़ करने वाले मनचलों को दो बहनों ने सबक सिखाया। जबकि पूरी बस में सभी लोग तमाशबीन बनकर तमाशा देखते रहे, सिर्फ एक गर्भवती महिला ने ही उनका विरोध किया। इस तरह की घटनाएं दिल्ली, हरियाणा या फिर कोई और राज्य सभी जगह हो रही है। दिल्ली में महिलाओं और आमलोग की सुरक्षा का तर्क देकर दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) ने अपनी 200 बसों में सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं। कहा जा रहा है कि इन कैमरों को बसों में सफर करने वाले लोगों, खासकर के महिलाओं की सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए लगाया गया हैं। हर बस में तीन-तीन कैमरे लगाए गए हैं। 200 बसों में एसी लो फ्लोर और नॉन एसी लो फ्लोर बसें शामिल हैं। इससे ठीक पहले दिल्ली पुलिस ने भी राजधानी के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरे लगाने का फैसला किया। यहां सवाल उठता है कि क्या महज सीसीटीवी तकनीक के जरिए ही आमलोगों और महिलाओं की सुरक्षा हो सकती है। क्या अब सार्वजनिक परिवहन के तहत चलने वाली बसों में भी सीसीटीवी कैमरों की जरूरत है जिसमें सैकड़ों लोग सफर करते हैं। जब सैकड़ों लोगों के बीच कोई लूट-पाट या छेड़छाड़ की घटना होती है, लेकिन उस घटना को रोकने के लिए कोई भी आगे नहीं आता। इसकी एक वजह यह है कि हम लोगों एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां हम अन्य लोगों के प्रति संवेदनहीन होते जा रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि आम जनता पुलिस से दूर ही रहना चाहती है, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति किसी की मदद भी करना चाहता है तो हमारा पुलिस और प्रशासनिक तंत्र मदद करने वाले को ही अपने शिकंजे में लेने की कोशिश करता है। साथ ही उसे लंबे समय तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं। तब क्या महज सीसीटीवी कैमरों के लगाए जाने के बाद आम लोग या महिलाएं बसों में सुरक्षित होगी, यह कहना मुश्किल है।

सीसीटीवी कैमरों से पहले डीटीसी बसों में ही सुरक्षा के नाम पर और यात्रियों की सुविधा का तर्क देकर जीपीएस सिस्टम को लगाया गया था ताकि बसों की वास्तविक स्थिति और रूट की जानकारी मिल सके है। लेकिन जीपीएस सिस्टम के बावजूद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। दिल्ली सरकार का एक और फैसला जिसके तहत रात में चलने वाली डीटीसी बसों में होमगार्ड जवानों को तैनात करने की बात कही। लेकिन इन सभी फैसलों के बाद भी अपराध की घटनाओं में कोई कमी नहीं हुई।
जब सड़कों और मुख्य मार्गों पर सीसीटीवी कैमरों को लगाया जा रहा है, तब फिर बसों में इन कैमरों की क्या जरूरत है। गौरतलब है कि कैसे मेट्रो में लगे सीसीटीवी कैमरों का दुरुपयोग हुआ और उनसे अश्लील वीडियो क्लिप्स बनाए गए। मेट्रो स्टेशनों पर सीसीटीवी होने के बावजूद चोरी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इससे भी यह बात साफ होती है कि महज तकनीक के जरिए ही चोरियां नहीं रोकी जा सकती हैं।

आम लोगों की सुरक्षा का तर्क देकर सरकार आसानी से सड़कों, बाजारों के बाद अब बसों में भी सीसीटीवी कैमरे लगा रही है। लेकिन यहां एक सवाल उठता है कि इस तरह से बढ़ती सीसीटीवी कैमरों की निगरानी क्या आम लोगों की आजादी के खिलाफ नहीं है? इस तकनीक के जरिए क्या अपराधों को कम किया जा सकता है? ब्रिटेन जैसे देश में जहां पर सबसे अधिक सीसीटीवी कैमरे लगाए गए है जब वहां पर अपराध दर में कमी नहीं आई है। तो फिर हम क्यों सीसीटीवी के जरिए अपराध दर को कम कर लेना चाहते है, जो कि संभव नहीं है। सरकार और प्रशासन अपराध के कारणों की जड़ों में जाने के बजाए सीसीटीवी कैमरों को ही समाधान मानने लगा है। इससे सरकार और प्रशासन अपनी जिम्मेदारी से भी बच जाते हैं और सुरक्षा व्यवस्था में होने वाली खामियों को भी छिपा लेते हैं।
   
सीसीटीवी कैमरों के जरिए सिर्फ हमें अपराध की घटना के संबंध सुराग या सबूत ही मिल सकते है। इस तकनीक की मदद से मिले सुराग या सबूत के बाद भी पुलिस कई घटनाओं में अपराधी को पकड़ने पाने नाकाम रही है। इस बात से यह भी स्पष्ट होता है कि महज इस तकनीक के भरोसे सुरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता। यह तकनीक हमारी सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर कर सकती है, लेकिन सीसीटीवी कैमरों के भरोसे ही सुरक्षा की बात करना बेमानी है। इस तकनीक का इस्तेमाल भी उतना ही किया जाना चाहिए जिससे आम आदमी की आजादी खतरे में न पड़े।

हमारे समाज में सुरक्षा के नाम पर सी.सी.टी.वी कैमरे का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। इस बात को ऐसोचैम की 2012 की रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सीसीटीवी के बाजार की समग्र वार्षिक विकास दर 30 प्रतिशत है और एक अनुमान के मुताबिक यह 2015 तक 2200 करोड़ रुपये का हो जाएगा। इस समय भारत में कुल इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा बाजार 2400 करोड़ का है जिसमें सीसीटीवी कैमरे का प्रतिनिधित्व 40 प्रतिशत है और सीसीटीवी कैमरे का बाजार तेजी बढ़ कर रहा है। भारत का सीसीटीवी बाजार वैश्विक औसत के मुकाबले भी तेजी से बढ़ रहा है और एशियन देशों में चीन भी इसी तेजी से विकास कर रहा है। 


अगर इसी तरह से सुरक्षा के नाम पर सीसीटीवी कैमरों को बढ़ावा दिया गया तो इससे अपराध दर भले ही न घटे लेकिन इसे आम आदमी की आजादी जरूर खतरे में पड़ जाएगी। इस तकनीक को ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने बजाए बेहतर होगा कि हम पुलिस सुधार पर ज्यादा बल दें। पुलिस सुधार को लेकर कई कमेटियां का गठन हुआ, लेकिन उन कमेटियां की सिफारिशों को आज तक अमल में नहीं लाया गया है। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट के व्यापक दिशा-निर्देश के बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। आम लोगों के बीच पुलिस को अपनी छवि को सुधारना होगा, ताकि पुलिस और जनता के बीच संबंध कायम हो सके। तभी इस तरह की घटनाओं को रोक जा सकता हैं। 

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

सुरक्षा का सवाल और मीडिया का नजरिया


एक राष्ट्रीय अखबार (जनसत्ता) ने अपने दिल्ली संस्करण में 20 जुलाई को पेज नंबर चार पर लाजपतनगर बाजारः खतरे में खरीदारी हेडलाइन से खबर छापी। पूरी खबर में लाजपतनगर में अनधिकृत दुकानों से होनी वाली अव्यवस्था के बारे में बताया गया है। साथ ही खबर में लाजपतनगर 1996 में हुए विस्फोट की फाइल फोटो भी लगाई गई है और उस घटना के बारे में विस्तार से बताया है।

इसी किस्म की एक दूसरी खबर एक अन्य समाचार पत्र (नवोदय टाइम्स) में 24 जुलाई को तीसरी आंख में खराबीः कैसे रखी जाए आतंकियों पर नजर शीर्षक से छपी। इसमें लोट्स टेंपल, आनंद विहार, दिल्ली का पॉश मार्केट साकेत, पी.वी.आर मार्केट, पहाड़गंज बाजार, कुतुबमीनार और लाजपतनगर मार्केट इन सभी जगहों को सब-हेड बनाकर उसमें सी.सी.टी.वी कैमरों की खराबी के बारे में बताया गया है, जबकि खबर में सिर्फ लोट्स टेंपल और कुतुबमीनार के बारे कहा गया है कि एनआईए कई बार पत्र लिखकर इन सार्वजनिक स्थलों को सुरक्षा घेरे में रखने की बात कह चुकी है। पहाड़गंज बाजार के बारे में लिखा गया है कि 2005 में आतंकियों ने यहां हमला किया था।

यह दोनों खबरें एक-दूसरे से अलग दिख सकती है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। दोनों खबरों के जरिए यह बताने की कोशिश की गई है कि अव्यवस्था और सी.सी.टी.वी कैमरे खराब होने के कारण इन जगहों पर घूमना तथा खरीदारी करना खतरे से खाली नहीं है। सवाल यह है कि जो अव्यवस्था बाजार में साल भर रहती है, उस अव्यवस्था को खास समय में ही पत्रकार क्यों सुरक्षा से जोड़कर देखता है तथा खबर लिखता है, जबकि बाकी समय में यह अव्यवस्था सिर्फ अव्यवस्था ही रहती है। जाहिर है कि इस तरह की खबरें देकर स्वतंत्रता दिवस के लिए सुरक्षात्मक और राष्ट्रवादी माहौल तैयार करने की कोशिश की जाती है। इससे यह भी साफ हो जाता है कि ऐसे पत्रकार पाठकों के लिए उस तरह का माहौल तैयार कर रहे हैं, जैसे कोई आतंकी घटना होने वाली हो।  

एक अखबार अपनी खबर में खतरा शब्द का प्रयोग करता है, तो दूसरा आतंकी शब्द का। दोनों ही खबरें हेडिंग के मुताबिक नहीं लगती है। खतरा और आतंकी शब्द का इस्तेमाल बिना किसी पुख्ता स्रोत के धड़ल्ले से किया जा रहा है। पत्रकारिता में शब्दों का अपना महत्व होता है। लेकिन लगता है कि पत्रकारिता में शब्दों के प्रति संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। अब तक आतंकवाद, आतंकी जैसे शब्दों का प्रयोग उसके अर्थों में किया जाता था लेकिन पिछले कुछ समय से आतंकवाद, आतंकी शब्द के अर्थ को मीडिया ने बदल कर रख दिया है। मीडिया अपने अनुकूल आतंकवाद, आतंकी शब्द का प्रयोग करता है, ठीक उसी प्रकार एक पत्रकार अपनी खबरों में आतंकी शब्द का प्रयोग करता है। इसलिए तो सी.सी.टी.वी कैमरे जहां खराब हों, वहां आतंकी शब्द का प्रयोग करने की सहूलियत पत्रकारों को मिल जाती है। इसी सहूलियत के तहत आजकल कुछ पत्रकार किसी विशेष अवसर या त्योहार पर पूर्व की घटनाओं को पृष्ठभूमि के तौर पर उपयोग कर खबरें गढ़ने लगे हैं। किसी घटना से जुड़ी पिछली घटनाओं का ब्यौरा पेश करने के लिए पृष्ठभूमि का इस्तेमाल किया जाता है। मगर अब पत्रकार पृष्ठभूमि को आधार बनाकर खबर देने लगे हैं।      

एक बात यह भी है कि सुरक्षा को सिर्फ आतंकियों से ही कैसे जोड़ा जा सकता है जिसका कोई आधार न हो। इन बाजारों या सार्वजनिक स्थानों पर होने वाली हिंसा, लूट-पाट, चोरी आदि की घटनाओं का संबंध भी सुरक्षा से ही है, तो फिर पत्रकार क्यों सुरक्षा को आतंकी घटनाओं तक सीमित करने की कोशिश कर रहा है। दूसरे, सुरक्षा को सिर्फ सी.सी.टी.वी तक क्यों समेटने की कोशिश की जा रही है। घटना घटने के स्थान पर सी.सी.टी.वी कैमरे का न होना या खराब होने को सुरक्षा में खामी के तौर पर देखा जाता है। समय-समय पर यह बात कही जाती है कि भीड़भाड़ वाले इलाकों में सीसीटीवी कैमरे न होने के कारण वहां कोई हमला या विस्फोट हो गया। सीसीटीवी कैमरे से पहले भी सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए एक्सरे मशीन और मेटल डिटेक्टर जैसे उपकरणों का प्रयोग किया गया है। तब फिर हम सीसीटीवी कैमरे को सुरक्षा व्यवस्था में सहायक उपकरण मनाने के बजाए उसे ही सुरक्षा का पर्याय बनाने में क्यों लगे हैं। सीसीटीवी कैमरों को बढ़ावा देने के लिए कहा जाता है कि इससे अपराध की घटनाओं में कमी आएगी। सवाल यह है कि सीसीटीवी कैमरा ही कैसे अपराध की घटनाओं को रोकने में सक्षम हो सकता है। इसके जरिए सिर्फ हमें अपराध की घटना के संबंध सुराग या सबूत ही मिल सकते है। शायद यह इसी का नतीजा है कि इस बार के बजट में महिला सुरक्षा के नाम पर सीसीटीवी उद्योग को प्रोत्साहन दिया गया है। हमारे समाज में सुरक्षा के नाम पर सी.सी.टी.वी कैमरे का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। इस बात को ऐसोचैम की 2012 की रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सीसीटीवी के बाजार की समग्र वार्षिक विकास दर 30 प्रतिशत और एक अनुमान के मुताबिक यह 2015 तक 2200 करोड़ रुपये का हो जाएगा। इस समय भारत में कुल इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा बाजार 2400 करोड़ का है जिसमें सीसीटीवी कैमरे का प्रतिनिधित्व 40 प्रतिशत है और सीसीटीवी कैमरे का बाजार तेजी बढ़ रहा है। भारत का सीसीटीवी बाजार वैश्विक औसत के मुकाबले भी तेजी विकास कर रहा है और एशियन देशों में चीन भी इसी तेजी से विकास कर रहा है। 

जिस तेजी से इसके कारोबार में बढ़ोतरी हो रही है उससे कहा जा सकता है कि जानबूझकर मीडिया के जरिये समाज में सुरक्षा के नाम पर डर का माहौल पैदा किया जा रहा है ताकि ऐसे उपकरणों की बिक्री बढ़े। इस मुनाफावाद में जनता के टैक्स का बंदरबांट करने का सरकारों को मौका मिल जाता है और ऐसे उपकरणों की सुरक्षा के नाम पर भारी भरकम खरीद-फरोख्त की जाती है। इस मुनाफावाद को बढ़ावा देने में पत्रकारों की बड़ी भूमिका होती है और वे इस तरह की मनगढ़ंत खबरें गढ़ने में लगे रहते हैं।

 



  




बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों की बाजीगरी


राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय और सरकार कह रही है कि कुल सरकारी स्कूल 10,94,431 में से सिर्फ 1,01,443 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है और 87,984 स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय काम नहीं कर रहे है। जिन स्कूलों में शौचालय नहीं है और काम नहीं कर रहे है उन दोनों के आंकड़ो को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 189427 हो जाएगा, जो कि कुल सरकारी स्कूलों का 17.30 फीसदी होगा। इसी साल जनवरी में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपने आंकड़ों में बताया था कि 2009-10 में 41 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं थी, लेकिन 2012-13 में यह संख्या घटकर 31 फीसदी रह गई। लेकिन 2013-14 में 17.30 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं और शौचालय काम नहीं कर रहे हैं (जिसे मीडिया में 19 फीसदी बताया गया है)। सवाल ये है कि जब 2012-13 में यह 31 प्रतिशत था, तो 2013-14 में घटकर 17.30 प्रतिशत कैसे हो सकता है। जबकि 2010 से 2012 के बीच सिर्फ 10 फीसदी की गिरावट आई थी। तब महज एक साल में 13.50 फीसदी की गिरावट कैसे आ सकती है। जबकि यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों में मामूली बढ़ोतरी होती है या फिर मामूली गिरावट आती है। इस वजह से लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों में तेजी से आई गिरावट विश्वसनीय नहीं लगती है।

इसी रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली के सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था है और सभी शौचालय ठीक से काम कर रहे है। जबकि हाल ही में अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक साउथ दिल्ली के बदरपुर में मोलरबंद गर्वान्मेंट बॉयस सीनियर सेकेंड्ररी स्कूल में शौचालय बदबूदार मिले। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि आंकड़ों में कुछ न कुछ गड़बड़ है।

उत्तर प्रदेश में कुल सरकारी स्कूल 160763 है, जिनमें से सिर्फ 2355 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जोकि 1.46 प्रतिशत है। जबकि 4634 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय काम नहीं कर रहे है, जोकि 2.91 प्रतिशत है। इसी साल के प्रथम संस्थान के सेंटर "असर" (एनुवल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) के सर्वे के मुताबिक प्रदेश के विद्यालयों में 2013 में 80 फीसद स्कूलों में पेयजल की सुविधा हो चुकी है, 79.9 फीसद स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय पाया गया। इसके बाद भी दुर्भाग्य की स्थिति रही कि 44 फीसद स्कूलों में ही शौचालय उपयोग करने के योग्य मिले। प्रथम की रिपोर्ट के मुताबिक 20 फीसदी में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के मुताबिक सिर्फ 1.46 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि असर के सर्वे में सरकारी और निजी दोनों स्कूलों शामिल है, लेकिन तब भी असर और राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों में काफी अंतर दिखता है। दो संस्थानों के अध्ययनों में 1-2 फीसदी अंतर तो हो सकता है, लेकिन यहां अंतर 18 फीसदी है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह सिर्फ आंकड़ो का खेल है।

इसी रिपोर्ट के गुजरात के आंकड़ों के मुताबिक 33713 स्कूल में से सिर्फ 87 स्कूलों लड़कियों के लिए अलग शौचालय नही है और 869 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय ठीक से काम नहीं कर रहे है। जबकि बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात (बाग) ने गुजरात के 249 स्कूलों प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें कच्छ, बनासकांठा, सुरेन्द्रनगर, नर्मदा, दाहोद, पंचमहल, अहमदाबाद जिले शामिल किए गए। बनासकांठा के सात प्राइमरी स्कूलों, सुरेन्द्रनगर के तीन प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। बाकी के पांच जिलों के कुछ स्कूलों में पानी के पानी की सुविधा भी नहीं है। बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात ने 249 प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें से 10 प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की सुविधा नहीं है, तब राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों को कैसे विश्वसनीय कहा जा सकता है।

एक सवाल यह भी है कि लड़कों के लिए भी शौचालय की व्यवस्था लड़कियों के मुकाबले कोई बेहतर नहीं है। क्योंकि कुल सरकारी स्कूल 10,94,431 में से 1,52,231 स्कूलों में लड़कों के लिए शौचालय सुविधा नहीं है। लेकिन मीडिया ने सिर्फ लड़कियों के लिए शौचालय न होने के आंकड़ों को लेकर ही खबर बनाई। जिससे ऐसा लगता है कि लड़कों के लिए शौचालय की समस्या ही नहीं है। स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था लड़के और लड़कियों दोनों के जरूरी है।

दरअसल सभी लोग आंकड़ों का इस्तेमाल अपनी सुविधानुसार करते हैं। सरकार आंकड़ों के जरिए अपनी उपलब्धियां बताती है, तो वहीं एक पत्रकार उन्हीं आंकड़ों से सरकार की उपलब्धियों की पोल खोल सकता है। सारा मामला यह है कि हम किस तरह से आंकड़ों को प्रस्तुत करते है। आंकड़ों का स्वयं में कोई महत्व नहीं है। अहम बात यह है कि हम आंकड़ों को किसलिए और किस तरह से तैयार कर रहे है। आंकड़ों के जरिए हम क्या बताना चाहते है।

रविवार, 28 सितंबर 2014

सिर्फ का विज्ञापन

                                                                      
मात्र  या सिर्फ एक ऐसा शब्द है जो पिछले एक दशक से कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर रियल एस्टेट मार्केट तक काफी प्रचलित हो गया है। अंग्रेजी में इस शब्द के लिए ओन्ली का प्रयोग किया जाता है। आज अगर हम किसी चीज को खरीदने के लिए बाजार जाते है तो हमें वस्तु की कीमत लिखी हुई मिलती है कि यह वस्तु मात्र 499 रुपये की है। ठीक इसी प्रकार कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक और रियल एस्टेट के विज्ञापनों को देखें तो उनके विज्ञापनों में भी इस शब्द का बखूबी इस्तेमाल किया जाता है। उपभोक्ता इससे आकर्षित भी होते है।

कपड़े का विज्ञापन होगा, तो उसमें बताया जाता है कि सिर्फ 399 रुपये में शर्ट या टीशर्ट खरीद सकते है। इसी तरह से मोबाइल फोन के विज्ञापन में कहा जाता है कि मात्र 2999 रुपये में यह मोबाइल खरीद सकते है। यहां तक तो ठीक भी कहा जा सकता है, लेकिन रियल एस्टेट मार्केट ने तो इस शब्द को काफी अच्छे भूनाया है। रियल स्टेट के एक विज्ञापन को देखें। श्री बांके बिहारी मंदिर और एनएच-दो से मात्र 10 मिनट की दूरी पर और रेलवे स्टेशन से 1 किमी की दूरी पर अपना घर बुक कराएं। रियल एस्टेट के ज्यादातर विज्ञापन इसी तरह के होते है। एक अन्य विज्ञापन एक रूम फ्लैट रुपये 9 लाख रुपये में मात्र।

कभी-कभी विज्ञापनों में मात्र की जगह सिर्फ और केवल का भी प्रयोग किया जाता है। इस शब्द के जरिए कैसे कपड़े से लेकर रियल एस्टेट मार्केट तक ने लोगों को यह एहसास करवा दिया है कि यह चीज या सामान सस्ता है। कहा जाता है कि यह चीज सिर्फ या मात्र इतने की है। 299 रुपये, 399 रुपये बताने का जो ट्रेंड है वह यहीं बताता है कि यह चीज सस्ती है।   दुकानदार कहता है कि सिर्फ 399 रुपये की ही तो है। तब हमें लगता है कि वाकई यह चीज तो सस्ती है। जबकि ऐसा नहीं है।

रियल एस्टेट ऐसा सेक्टर बनकर उभरा है जो टीवी से ज्यादा प्रिंट मीडिया के लिए विज्ञापन जारी करता है। अखबारों में रियल एस्टेट प्रोजेक्ट के विज्ञापनों की भरमार होती है। रियल एस्टेट के लिए जैसे मात्र या सिर्फ शब्द वरदान बन गया है। तभी तो बिल्डर बड़े आराम से अपने फ्लैट या ऑफिसों के आस-पास बने मंदिर, हाईवे, मेट्रो और विश्वविद्यालय को ग्राहकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनाकर फ्लैट या ऑफिस बेच रहा है, जबकि इन सुविधाएं को ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए उसने कोई खास मेहनत नहीं की। इंसान अपने घर के आस-पास मूलभूत सुविधाओं की इच्छा तो रखता ही है, लेकिन वह बिल्डर अपने विज्ञापन में अस्पताल, स्कूल, मंदिर और मेट्रो को आकर्षण के तौर पर इस्तेमाल करता है। अब तो रियल एस्टेट मार्केट के लोगों ने हद कर दी है। आजकल तो बिल्डर अपने विज्ञापनों में किसी नये हाइवे या विश्वविद्यालय बनने के प्रस्ताव को भी ग्राहकों के आकर्षण का केन्द्र बनाने की कोशिश कर रहे है। अमूमन इन आकर्षणों के दम पर ही बड़े-बड़े बिल्डर जिनके फ्लैट्स की कीमत कभी 10 लाख होती थी, वह उन्हीं फ्लैटों को बड़े आराम से अब 25 लाख तक में बेच रहे हैं।

इन विज्ञापनों के कारण ही नौकरी लगते ही इंसान अपने लिए फ्लैट बुक कराने की जुगत में भिड़ जाता है। वह रियल एस्टेट की वन बीएचके, टू बीएचके डुप्लेक्स, मिनी टाउनशिप की शब्दावली से भी परिचित हो गया है। इंसान के इसी अपना घर पाने की इच्छा को रियल एस्टेट ने अच्छे से भूनाया है।

कहा जाता है कि विज्ञापन में कहे गए शब्द ही विज्ञापन को आकर्षक बनाते है। रियल ऐस्टेट के विज्ञापनों में प्रयोग मात्र या सिर्फ शब्द ने ही विज्ञापन को प्रभावी और आकर्षक बना दिया है। इन्हीं विज्ञापनों से प्रभावित होकर ही लोग बड़ी परियोजना में निवेश कर रहे हैं।

रविवार, 21 सितंबर 2014

हिन्दी का विकास हो रहा है !

                                                                                                         - संजय कुमार बलौदिया
आज हिन्दी अखबारों के भले ही करोड़ों पाठक है। हिन्दी अखबारों के करोड़ों पाठकों के आधार पर कहा जाता है कि हिन्दी फल-फूल रही है। लेकिन शायद हम यह भूल जाते है कि आज के हिन्दी अखबार अब सिर्फ हिन्दी के नहीं रहे है, बल्कि वह हिंग्लिश भाषा के हो गए है। साथ ही अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है।     

जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अखबार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में, बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अखबार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापने के आदेश दिए और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की गई। पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने हिंदी को आसान बनाने के नाम पर धड़ल्ले अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया और अब हिंदी का वाक्य बिना अंग्रेजी के शब्द के पूरा ही नहीं होता है। क्या हिंदी को आसान बनाने के लिए बोलियों और भारतीय भाषाओं से शब्द नहीं लिए जा सकते है। अगर बोलियों और भारतीय भाषाओं के शब्दों को हिन्दी को आसान बनाने में प्रयोग किया जाता, तो अंग्रेजी वर्चस्व कैसे बना रहता। संसार की इस दूसरी बड़ी बोली जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीनकर उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के सभी अखबार जुट गए हैं।

हिंदी और पत्रकारिता दोनों का आपस में रिश्ता रहा है। उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। हिन्दी को पालने-पोसने में हिन्दी पत्रकारिता ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन अब वहीं हिंदी पत्रकारिता करने वाले अखबार अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाये रखने में जुट गए है। अब तो हिंदी अखबार एक कदम आगे बढ़कर अपने पाठकों को अंग्रेजी भी सिखाने लगे हैं। इसके लिए निर्धारित पृष्ठों पर अंग्रेजी शब्द देकर उच्चारण को सुधारने या अंग्रेजी वाक्य बनाने भी सिखाए जा रहे है। आज कई अखबारों और चैनलों की भाषा हिंदी न होकर हिंग्लिश रह गई है।

ठीक इसी तरह हिंदी सिनेमा भी तेजी से फल-फूल रहा है। आज हमारी फिल्में तो हिन्दी में है, लेकिन उनके नाम अंग्रेजी में हो गए है जैसे - वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई, देल्ही बेली, फाइंडिंग फेनी और क्रीचर 3 डी आदि। ऐसा लगता है कि हिन्दी सिनेमा के पास भी फिल्मों के लिए हिंदी के शब्द कम पड़ गए है। इसके बावजूद हिन्दी सिनेमा व्यवसाय तेजी बढ़ रहा है, तो इसकी भी वजह हिंग्लिश ही है।

संविधान में हिंदी को संघ की राजभाषा का दर्जा 14 सितम्बर 1949 को दिया गया था इसी वजह से 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिले छह दशक से भी ज्यादा समय हो गया है, लेकिन हमारे देश में हिंदी अभी तक प्रशासनिक काम-काज की भाषा नहीं बन पाई है। आज भी चाहे प्रश्न-पत्र हो या सरकारी चिट्ठी, राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी ही है। पूरी दुनिया में बार-बार यह बात साबित हुई है कि शिक्षा में जितनी सफलता मातृ-भाषा माध्यम से प्राप्त होती है उतनी सफलता विदेशी भाषा माध्यम से प्राप्त नहीं हो सकती। लेकिन हमारे नीति निर्माता यह मानकर बैठे है कि अंग्रेजी के बिना हमारा विकास हो ही नहीं सकता। इसी का नतीजा है कि देश में उच्च शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता कानूनी नहीं है, लेकिन उसे अनिवार्य की तरह लागू करने की कोशिश तेजी से हो रही है। हमारे देश में यह मान लिया गया है कि अंग्रेजी ही ज्ञान की एकमात्र भाषा है। आज दुनिया के लगभग सभी गैर-अंग्रेजी भाषी देश अपने देशों से अंग्रेजी भाषा के प्रभाव को समाप्त करने में लगे हैं। लेकिन हम लोग अपनी सारी शिक्षा, संस्कृति, संचार अंग्रेजी भाषा के हवाले किए जा रहे हैं।     
  
करीब सौ साल पहले तक हमारे समाज के प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने अंग्रेजी सीखने के बावजूद अपनी मातृभाषा में काम किया। लेकिन हम लोग अंग्रेजी सीखने के लिए अपनी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करने से भी पीछे नहीं हट रहे है। अन्य भाषाओं को सीखने की बात ही कहां रह जाती है। जबकि अमेरिका जैसा देश भी अपनी मातृभाषा के साथ ही अन्य भाषाओं को सीखने की कोशिश करता है। इसी तरह चीन, जापान भी अपनी भाषा में ही काम कर रहे है और अन्य भाषाओं को भी सीख रहे है। लेकिन हम लोग अंग्रेजी के पीछे इसलिए पड़े है ताकि अच्छी नौकरी मिल जाए। यह भी जरूरी नहीं है कि अंग्रेजी की डिग्री या अंग्रेजी सिखने के बाद भी नौकरी मिल ही जाए। फिर भी हम लोग अपने बच्चों पर अंग्रेजी सिखने के लिए दबाव बनाते रहते है।          

रविवार, 13 जुलाई 2014

छात्रों का एक साल बर्बाद करने वाली व्यवस्था

                                                -संजय कुमार बलौदिया

दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग (एसओएल) का परीक्षा परिणाम  हर बार स्नातकोत्तर में दाखिले की प्रक्रिया पूरी होने के बाद आता है। इस वजह से विद्यार्थियों को रेगुलर स्नातकोत्तर कोर्स में दाखिला नहीं मिल पाता है। इस वर्ष एसओएल के छात्र-छात्राओं ने रिजल्ट के देर से आने को लेकर विरोध प्रदर्शन भी किया। वहीं एसओएल में पुनर्मूल्यांकन करवाने वाले छात्र-छात्राओं का रिजल्ट भी देरी से आया। जिससे उन छात्रों को कहीं दाखिला नहीं मिला और उनका एक साल बर्बाद हो गया। 

दिल्ली विवि में चार वर्षीय पाठ्यक्रम को लागू करने के बाद से पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया को खत्म कर दिया गया। लेकिन दिल्ली विवि के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग में चारवर्षीय पाठ्यक्रम न होने के कारण वहां पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था है। इस व्यवस्था का लाभ उठाने और अपना एक साल बचाने के लिए कुछ छात्र-छात्राएं पुनर्मूल्यांकन करवाते हैं। मैंने आरटीआई के जरिए पुनर्मूल्यांकन के संबंध में जानकारी जुटाई। मई-जून 2013 (चौथे सेमेस्टर) में एम.ए राजनीति विज्ञान के 38 छात्र-छात्रों और एम.ए हिंदी के 5 छात्र-छात्राओं ने पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किया। एम.ए राजनीति विज्ञान में पुनर्मूल्यांकन में 38 में से 11 छात्र और एम.ए. हिन्दी में 5 में से 1 छात्र पास हो गया। इससे पता चलता है कि 25 से 30 फीसदी छात्र पुनर्मूल्यांकन के दौरान पास हो रहे है। इसे एक उदाहरण के रूप में लिया जाए तो अन्य विषयों के छात्र-छात्राओं ने भी पुनर्मूल्यांकन करवाया होगा। इस एक आंकड़े से यह भी समझा जा सकता है कि दिल्ली विवि के एसओएल में कैसे छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है। एक बात तो यह स्पष्ट होती है कि उत्तरपुस्तिकाओं का सही तरीके से मूल्यांकन नहीं होता है। दूसरी बात यह है पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था के जरिए एक तरफ छात्रों को लूटा जा रहा और वहीं छात्रों का साल भी नहीं बच रहा है।

पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था को लागू करने के पीछे उद्देश्य छात्रों का एक साल बचाना था। पुनर्मूल्यांकन के नियमानुसार 45 से 60 दिन के भीतर रिजल्ट आ जाना चाहिए, लेकिन एसओएल के जिन छात्रों पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किया, उनका रिजल्ट 2 महीने 18 दिन में आया। जैसा कि एसओएल का परीक्षा परिणाम देरी से आता है, ठीक उसी तर्ज पर पुनर्मूल्यांकन करवाने वाले छात्रों का रिजल्ट भी देरी से आया। जिससे उन छात्रों को कहीं भी दाखिला नहीं मिला और उनका एक साल बर्बाद हो गया, तो पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था के होने का क्या मतलब रह जाता है। पुनर्मूल्यांकन की व्यवस्था होना ही काफी नहीं, उस व्यवस्था का छात्र-छात्राओं को लाभ भी मिलना चाहिए।

 ठीक इसी तरह का मामला दिल्ली विवि के कॉलेजों के छात्रों ने उठाया था जब एक खास विषय में उन्हें कम अंक दिए गए थे और उन्होंने पुनर्मूल्यांकन की मांग भी की थी। पुनर्मूल्यांकन के समय को लेकर मार्च 2011 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) को कक्षा 12 वीं के छात्रों के अंकों को पुनर्मूल्यांकन समयबद्ध ढंग से पूरा करने के लिए एक तंत्र विकसित करने का निर्देश दिया था। लेकिन लगता है कि उच्च न्यायालय के निर्देश से कोई सबक दिल्ली विवि के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग ने नहीं लिया। 

रविवार, 16 मार्च 2014

पत्रकारिता का प्रशिक्षण ही बन गया है पत्रकारिता

                                                         – संजय कुमार बलौदिया

पिछले एक दशक में पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों का तेजी से विस्तार हुआ है। पत्रकारिता के क्षेत्र को जिस तरह ग्लैमर्स की दुनिया बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इससे छात्र-छात्राओं का पत्रकारिता की ओर रुझान तेजी से बढ़ा है। इसी वजह से आज कई तरह के मीडिया संस्थान सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री कोर्स चल रहे है। ये संस्थान एंकर, रिपोर्टर और कैमरामैन बनाने के लिए सर्टिफिकेट और डिप्लोमा भी बांट रहे हैं। पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और बदलती तकनीक के कारण ही इस क्षेत्र में प्रशिक्षण को जरूरी समझा गया। प्रशिक्षण का सामान्य अर्थ है कि किसी भी काम को और बेहतर तरीके से करना है। पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षण शब्द को सिर्फ तकनीक अर्थों तक ही समेट दिया गया है। इस वजह से ऐसा लगता है कि जैसे पत्रकारिता का प्रशिक्षण ही पत्रकारिता है। 

अभी हाल ही में विश्व पुस्तक मेले के दौरान पत्रकारिता के कुछ छात्र-छात्राओं और अध्यापकों को देखा जो मीडिया लेखन, समाचार लेखन, रेडियो लेखन जैसी किताबें खोज रहे थे। उन्हें काफी समझाने की कोशिश की इस प्रकार की किताबों से पहले पत्रकारिता को लेकर एक समझ बनाने की जरूरत है। लेकिन शायद वह समझना ही नहीं चाहते थे और वह इन किताबों को खोजते हुए आगे बढ़ गए। 

दरअसल बात यह है कि बीते एक दशक में जिस तरह से पत्रकारिता के क्षेत्र को प्रचारित किया गया है। उससे अब छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता का प्रशिक्षण/पाठ्यक्रम ही पत्रकारिता लगने लगा है और वह पाठ्यक्रम की किताबें पढ़कर ही पत्रकारिता कर लेना चाहते है। ये छात्र-छात्राएं खबरों को जानना-पहचानना और खोज नहीं चाहते हैं। इनके अध्यापक भी सिर्फ छात्र-छात्राओं को इतना ही तो सिखाना चाहते है कि समाचार कैसे लिखे, रेडियो के लिए कैसे लिखे, पैकेज कैसे काटें, एकरिंग कैसे करें या फिर रिपोर्टिंग संबंधी कुछ जानकारी भी दे देते हैं। इससे ज्यादा हुआ तो टाइपिंग और पेज डिजाइनिंग सीखा दी जाती है। इसके बाद वह एक पत्रकार बन जाता है और किसी मीडिया संस्थान में 5 डब्ल्यू 1 एच का प्रयोग करते हुए खबरें लिखता रहता है या पैकेज काटता रहता है। वह इस फार्मूले से आगे बढ़कर खबर की पहचान नहीं कर पाता है और ना ही किसी प्रकार का प्रयोग कर पाता है।  

पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षित पत्रकार को तकनीकी प्रशिक्षण तो मिल जाता है, लेकिन इस पेशे के लिए जो  सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समझ बननी चाहिए, वह नहीं बन पाती है। जिससे आज के पत्रकार सामाजिक सरोकारों से दूर होते नजर आते हैं। तकनीक प्रशिक्षण के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन इसके दूसरे पक्ष को अनदेखा करना भी सही नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह पत्रकारिता के सभी संस्थानों का एक जैसा पाठ्यक्रम/प्रशिक्षण है और बाजार का दबाव भी है। जिस वजह से आज इस तरह के पत्रकार तैयार किये जा रहे हैं। पत्रकारिता को चाहकर भी पाठ्यक्रम के दायरे नहीं समेटा जा सकता। लेकिन अब स्थिति ऐसी हो गई कि पत्रकारिता के प्रशिक्षण/पाठ्यक्रम को ही पत्रकारिता समझा जाने लगा है। इससे कहीं न कहीं पत्रकारिता लेखन सिमटता नजर आ रहा है। पत्रकारिता जैसे क्षेत्र के लिए यह स्थिति बहुत खतरनाक है। यह स्थिति आगे आने वाली पत्रकार पीढ़ी के लिए बेहद खतरनाक होगी। 










किशोर और नए लोगों की अपराधों में बढ़ रही है संलिप्तता

                                                                       -संजय कुमार बलौदिया
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने कुछ समय पहले ही आंकड़े जारी किए। जिसके अनुसार दिल्ली में पिछले साल 2012 के मुकाबले 2013 में 43.67 फीसदी अपराधिक मामलों में बढ़ोत्तरी हुई हैं। बढ़ते अपराधिक मामले चिंता का विषय है। इन्हीं आंकड़ों में यह भी बताया गया है कि दिल्ली में 2012 के मुकाबले 2013 में हत्या के मामलों में कमी आई है। 2012 में 504 हत्याएं हुई जबकि 2013 में 487 हत्याएं हुई। भले ही हत्या संबंधी मामलों में कमी आई हो, लेकिन 2013 में हत्या जैसे मामलों को अंजाम देने वाले लोगों में 96 फीसदी लोग पहली बार अपराध करने वाले हैं। जिसमें सिर्फ 1.5 लोग ही ऐसे है जिनका पहले अपराधिक रिकॉर्ड रहा है। अपराध के बढ़ते आंकड़ों से ज्यादा चिंताजनक यह है कि कैसे लोगों में हिंसक प्रवृत्ति तेजी से बढ़ती जा रही हैं।

वहीं दिल्ली में 2012 में 680 बलात्कार की घटनाएं हुई जबकि 2013 में बलात्कार की घटनाओं का यह आंकड़ा बढ़कर 1559 हो गया है। 2012 में 62 किशोरों को बलात्कार के मामलों में और हत्या के मामलों में 97 किशोरों को गिरफ्तार किया गया। एनसीआरबी के आंकड़ो के अनुसार 2012 में भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों के आरोपों में 18 साल से कम आयु के 35465 किशोर गिरफ्तार किए गए। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक ही 2002 में बलात्कार मामले में 485 किशोर संलिप्त थे जबकि 2012 में यह आंकड़ा बढ़कर 1,175 हो गया। ठीक इसी प्रकार 2002 में हत्या के मामले में 531 किशोरों को गिरफ्तार किया गया, जबकि 2012 में यह आंकड़ा बढ़कर 990 हो गया है। इसी प्रकार अन्य अपराधों में भी किशोरों की संलिप्तता बढ़ती जा रही है।

एनसीआरबी के आंकड़ों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किशोरों की अपराधों में संलिप्तता तेजी से बढ़ती जा रही है। वहीं नए लोगों द्वारा हत्या जैसे जघन्य अपराधों को अंजाम देने के मामलों में भी बढ़ोतरी हो रही है। हमें अब अपराध के आंकड़ों को कम करने के साथ-साथ यह भी सोचना होगा कि किशोरों व नये लोगों की अपराधों में संलिप्तता को कैसे रोका जाए।

एक रिपोर्ट के मुताबिक कई बार किशोर, अपराध गुस्से के कारण या बदला लेने के लिए करते हैं और कई बार तो फिल्मों में देखे गए दृश्यों की नकल करने के लिए भी करते हैं। किशोरों को पारिवारिक वातावरण और उनके आसपास की परिस्थितियां ही उसे अच्छा या बुरा नागरिक बनाती है। वहीं अकेलापन और उपेक्षा किशोरों को अपराधिकता की ओर धकेलती है। अकेलापन किशोरों को क्रूर बनाता है। जिससे वह नशा करने और अपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने लगते है। इन वजहों से भी आज किशोरों और नए लोगों की बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराधों में संलिप्तता बढ़ती जा रही है।

आमतौर पर कहा जाता है कि निम्न आर्थिक वर्ग से संबंधित किशोर और लोग ही अपराधों को अंजाम देते है। यह बात एक हद सही हो सकती है। लेकिन यह भी सच है कि अब पढ़े-लिखे किशोर और नए लोग भी अपराधों को अंजाम देने में पीछे नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि आज के माता-पिता भौतिकता और महत्वकांक्षा की अंधी दौड़ में लगे हुए हैं, जिससे वह अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते हैं। जिससे बच्चों को सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाता है। जिससे युवा भटक जाते है। आज के प्रतिस्पर्धा के युग में युवा भी ढेर सारी भौतिक सुख-सुविधाओं को पाने की अंधी दौड़ में लगे हुए है। वह इन सुख-सुविधाओं को पाने के लिए अपराध की दुनिया की ओर भी आकर्षित हो रहे हैं। अपराधों के बढ़ने का एक कारण अपराधी को दण्डित किये जाने और न्याय सुलभता की दर का नीचे गिरना भी है।

किसी भी कानून से अपराधों को कम तो किया जा सकता है लेकिन खत्म नहीं किया जा सकता। आपराधिक मानसिकता को कानून के जरिए खत्म नहीं किया जा सकता। हमें किशोरों को स्वस्थ व सुंदर समाज देना होगा, तभी वह अपराधिक मानसिकता से मुक्त हो पाएंगे।