हमारे
यहां स्कूलों में बच्चों को सजा देने या उनसे मारपीट की घटनाएं निरंतर हो रही हैं।
सजा देने की प्रवृत्ति सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में दिखती है। उदाहरण के तौर
पर यहां तीन घटनाओं को देखा जा सकता है। 8 नवंबर को कानपुर के विजय नगर स्थित
राजकीय कन्या इंटर कॉलेज के छात्र विनीत कुमार को उसके शिक्षक ने ऐसी सजा दी जिससे
आहत होकर उसने घर आकर फांसी लगा ली। 26 नवंबर को हरियाणा
में फरीदाबाद के एक पब्लिक स्कूल में होमवर्क न करने पर आठवीं कक्षा के छात्र को
अध्यापक ने चपरासी बनने की बात कही जिससे आहत होकर उसने खुद को आग लगा ली। 27
नवंबर को मध्य प्रदेश में रतलाम के सरकारी आदर्श माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक ने
छठी कक्षा के छात्र को इतना पीटा कि उसकी नाक फूट गई। इस तरह की कई सारी घटनाएं देशभर
में देखने को मिल जाएंगी।
इसी साल अगस्त में
इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए मानव संसाधन
विकास मंत्रालय के डिपार्टमेंट ऑफ स्कूल एजुकेशन एंड लिटरेसी ने स्कूलों को
निर्देश दिए थे, जबकि इस तरह की घटनाओं को रोकने का शिक्षा का अधिकार कानून 2009
में भी प्रावधान किया गया है। कानून की धारा 17 (1) में कहा गया है कि बच्चों को
किसी भी तरह से शारीरिक दंड या मानसिक तौर पर उत्पीड़ित न किया जाए। धारा 17 (2)
में कहा गया है कि धारा 17 (1) के उल्लंघन करने पर सेवा नियमों के तहत उस व्यक्ति
पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। यहां सवाल उठता है
कि इस तरह की घटनाएं क्यों नहीं रुक रही हैं।
दरअसल, हमारी शिक्षा
व्यवस्था का पूरा ढांचा ही इसके लिए जिम्मेदार है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में
बच्चों को सिखाया नहीं जाता, बल्कि रटाया जाता है ताकि वह परीक्षा में अधिक से
अधिक अंक ला सके। शिक्षक पर पाठ्यक्रम को पूरा कराने और परीक्षा के लिए बच्चों को
तैयार करने का दबाव होता है। यह पाठ्यक्रम ऊंचे
शोध संस्थानों और अधिकारियों के कार्यालयों में बनाया जाता है जिसमें शिक्षकों की
कोई भूमिका नहीं होती है। इस वजह से भी बच्चों को सजा देने की
घटनाएं बढ़ रही हैं। साथ ही देश में शिक्षक और बच्चों के बीच अनुपात ऐसा है कि वह
छात्रों की क्षमताओं और आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दे पाते हैं और शिक्षक सिर्फ
अपना पाठ्यक्रम पूरा करने पर ज्यादा जोर देता है।
हमारे यहां शिक्षक
की जैसे-जैसे लाचारी बढ़ी है, उसी तरह से स्कूल में उसकी क्रूरता बढ़ती जा रही है।
हमारी व्यवस्था में स्कूल को हिंसक बनाने वाले तत्व लगातार सक्रिय रहे हैं। विरासत
चाहे अंग्रेजी राज से मानें, चाहे शिक्षा प्रणाली की स्थापना के पहले चल रही
शिक्षा से, बच्चों पर हिंसा हमारी स्कूली संस्कृति का स्वीकृत अंग रही है। हमारे
समाज में बच्चे को अनुशासन में रखने के लिए बच्चों के साथ मारपीट करने और उन्हें
डराने की संस्कृति को स्वीकृति मिली हुई है। स्कूल का काम बच्चों की क्षमताओं और
कौशल को विकसित करना होता है, लेकिन स्कूलों में उनकी क्षमताओं और कौशल को विकसित
करने के बजाए बच्चों को कहा जाता है कि वह सीखने या पढ़ने लायक नहीं है जिससे
बच्चे अपना आत्मविश्वास खो देते हैं और सजा दिए जाने के लिए भी खुद को जिम्मेदार
ठहराने लगते हैं।
इस
बात को राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर) के ‘स्कूलों में शारीरिक दंड’ अध्ययन
से समझा जा सकता है। जिसमें कहा गया है कि निजी स्कूलों में बच्चों के साथ सरकारी
स्कूलों के मुकाबले ज्यादा क्रूर व्यवहार होता है। इसी अध्ययन में यह बात भी सामने
आई कि लड़कें और लड़कियां दोनों सजा पाते हैं। जबकि हमारे समाज में यह धारणा बनी
है कि लड़कियों को कम सजा मिलती है, जो कि गलत है। यह अध्ययन सात राज्यों में किया
गया था।
चाइल्ड
साइकलॉजी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस बात को मनाते है कि बच्चों को मार-पीट या
डाटने के बजाए प्यार से समझाना चाहिए। हमारे समाज में अनुशासन को डाटने और मार-पीट
करने तक सीमित कर दिया है। मार-पीट करने या डाटने के बजाए बच्चों को इस तरह से
शिक्षित किया जाए कि वह अनुशासन के महत्व को समझे और वह खुद को अनुशासित रखें। महज
शिक्षकों को मारपीट या सजा न देने के निर्देशों से सुधार नहीं होगा। शिक्षकों पर
हावी दबावों को भी समझना होगा और शिक्षा व्यवस्था की खामियों में भी सुधार करना
होगा, तभी इस तरह की घटनाओं में कुछ कमी आ सकती हैं।