शिक्षा के बाजारीकरण पर चिंता जताते हुए दो दशक
पहले शिक्षा विभाग के अध्यक्ष कृष्ण कुमार ने एक लेख में लिखा था कि हमारे देश में
दो तरह के स्कूल बन रहे है। पहली किस्म का स्कूल जिसे उन्होंने खुला स्कूल कहा,
जिसमें हरेक बच्चे को कई तरह की सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों से आने
वाले बच्चों से संबंध बनाने का मौका देता है। दूसरी तरफ फीस देने की क्षमता या
तथाकथित योग्यता के आधार पर बच्चों को चुनने वाला स्कूल, जिसे उन्होंने बंद स्कूल
कहा था। तब से लेकर अब तक हमारे देश में दो तरह के स्कूलों का विकास होता गया और
आज शिक्षा के ढांचे को केवल बाजार की जरुरत के अनुसार खड़ा करने की कोशिश हो रही
है। जबकि शिक्षा से व्यक्ति का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास जुड़ा
होता है। इस कारण सिर्फ बाजार की जरुरत के अनुसार शिक्षा का ढांचा खड़ा करने से
क्या व्यक्ति का पूर्णतः विकास हो पायेगा। वहीं इससे शिक्षा के स्तर में भी गिरावट
आएगी। बाजार के अनुरुप शिक्षा का ढांचा खड़ा करके हम सिर्फ कामगार लोगों की संख्या
जरूर बढ़ा लेगें, लेकिन जागरूक नागरिक नहीं बना पायेंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय कोर्स की शुरुआत भले ही अब हुई है, लेकिन
इसकी शुरुआत तो तभी हो गई थी जब हमारे स्कूलों में कक्षा आठवीं तक बिना किसी
परीक्षा या मूल्यांकन के विद्यार्थी को अगली कक्षा में भेजने की अनिवार्यता दे दी
गई थी। इससे शिक्षितों के आंकड़े तो बढ़े लेकिन बुनियादी शिक्षा का स्तर भी गिरता गया
है। स्थिति यह है कि कक्षा पांचवी का छात्र दूसरी कक्षा की किताबें नहीं पढ़ पाता
है। अब दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्नातक स्तर पर बुनियादी कोर्स के नाम पर फाउंडेशन
कोर्स पढ़ाने की राह निकाल ली है। वहीं अब सीबीएसई भी आठवीं के बाद व्यावसायिक
पाठ्यक्रम को पढ़ाने की योजना बना रहा है। सवाल शिक्षा का स्तर बनाम बाजार के
अनुरुप शैक्षणिक संस्थानों का ढांचा खड़ा करने की योजना से जुड़ा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में काफी गहमा-गहमी के बाद चार वर्षीय कोर्स लागू कर दिया।
लेकिन अभी भी इस कोर्स को लेकर विरोध थमता नजर नहीं आ रहा है। बुनियादी तौर पर ये
तीन वर्ष के कोर्स को चार वर्ष में बदलने से नहीं जुड़ा है और ना ही चार वर्ष के
कोर्स का ही विरोध करने तक सीमित है। बुनियादी तौर पर विरोध में वह चिंता शामिल है
जिसमें बाजार को ध्यान में रखकर पढ़ाई लिखाई का ढांचा व वातावरण विकसित किया जा
रहा है। इस चार वर्षीय कोर्स में चार तरह के कोर्स छात्रों को पढ़ाए जाएंगें
जिसमें पहला फाउंडेशन कोर्स यानी बुनियादी पाठ्यक्रम। इसमें 11 पेपर होंगे। यह
पेपर आटर्स, साइंस और कॉमर्स के सभी छात्र-छात्राओं के लिए अनिवार्य है। दूसरा
डिसिप्लिन वन है, यह मुख्य कोर्स है। तीसरा डिसिप्लिन टू है, इसमें डिसिप्लिन वन
के सहायक पेपर पढ़ाए जाएंगे। चौथा एप्लाइड कोर्स है, यह स्किल ( दक्षता या कौशलता
) आधारित कोर्स है। चार वर्षीय कोर्स भले ही एक नजर में अच्छा लगे, लेकिन इसमें खामियों
की पड़ताल एक बुनियादी जरूरत है। इस कोर्स को लागू करते हुए यह कहा जा रहा है कि
कोर्स छात्र-छात्राओं के हित में है और इससे छात्र-छात्राओं को रोजगार के अधिक
अवसर मिलेंगे। डीयू के कुलपति दिनेश सिंह का भी कहना है कि कोर्स तैयार करने में
बाजार का ध्यान रखा गया है और साथ ही इसमें व्यावहारिक ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया
गया है। यह तो हम सभी जानते है कि काफी समय से उच्च शिक्षा में सुधार को लेकर
चर्चा हो रही है, लेकिन क्या सिर्फ स्नातक की डिग्री को चार साल का करने देने से
उच्च शिक्षा में सुधार हो जाएगा ? सुधार की प्रक्रिया
पहले प्राथमिक स्तर पर शुरू होनी चाहिए। यदि वास्तव में मंशा लोकतंत्र के अनुरूप
शिक्षा के ढांचे को खड़ा करने की है।
जब पहले ही छात्र-छात्राएं 12 वीं कक्षा तक तमाम विषयों के बारे में
परिचयात्मक ज्ञान हासिल कर लेते है और आगे की पढ़ाई अपनी विषय रुचि के अनुसार करते
रहे है। तो उन्हें स्नातक स्तर पर बुनियादी विषय को थोपने की दलील समझ से परे हैं।
वहीं इस कोर्स को पढ़ाने के लिए पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी नहीं है।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी रिक्त पदों को लेकर चिंता जाहिर की है। वहीं अगर
पाठ्यक्रम की बात करें, कहा जा रहा है कि इसकी चार साल से तैयारी चल रही थी। लेकिन
सवाल यह है कि चार साल की तैयारी के बाद भी कोर्स डीयू के प्रोस्पेक्ट्स से गायब
क्यों है। प्रोस्पेक्ट्सों में कोर्स का न होना भी चार वर्षीय पाठ्यक्रम की हड़बड़ी
बताता है।
एक और नई सिफारिश यह है कि अब छात्रों को सभी प्रश्नपत्रों को मिलाकर 45 फीसदी
अंक लाने होंगे। इसका मतलब यह है कि किसी छात्र को अगर एक पेपर में 20 अंक भी
मिलते है, तब भी उसे डिग्री मिल जाएगी। इस सिफारिश से कोर्स को लेकर विरोधाभास की
स्थिति नजर आ रही है। इस कोर्स के जरिये बाजार के अनुरूप शैक्षणिक संस्थानों को ही
खड़ा करना भर नहीं है। दरअसल शैक्षणिक संस्थान पूरी राजनीतिक व्यवस्था के ही
हिस्से होते है। एक संकट ये खड़ा हो रहा है कि बेरोजगारी के आंकड़ें बेतहाशा बढ़
रहे हैं। इस तरह के कोर्स से उन आंकड़ों के ग्राफ्स और गति को कमतर दिखाया जा सकता
है। एक सरल सा तर्क है कि जो स्नातक की डिग्रीधारी पहले तीन वर्षों के बाद नौकरी
मांगते थे अब वे चार वर्ष में ही नौकरियों के लिए मार्केट में हकदार हो सकते हैं।
डीयू के चार वर्षीय पाठ्यक्रम लागू करने से जहां
शिक्षा प्रणाली दो तरह की हो जाएगी। वहीं डीयू के छात्रों को अन्य विश्वविद्यालय
से पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए दो साल का ही समय देने होगा। इस कोर्स से समय और
पैसे दोनों की बर्बादी होगी। यह शिक्षा के बाजार के हित में है। इससे निजी शिक्षा
संस्थानों को लाभ मिलेगा।अब छात्र डिप्लोमा करने के बाद ही नौकरी के लिए दौड़ने
लगेंगे। जितने ज्यादा लोग नौकरी के लिए दौड़ते है वह स्थिति बाजार के हित में होती
है। वहीं डिग्रीधारी छात्र से डिप्लोमा धारी छात्र का आत्मविश्वास भी कम होगा। शिक्षा
के बदलाव से बाजार का विकास होगा, व्यक्ति का विकास नहीं हो पाएगा।
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