-संजय कुमार बलौदिया
अभी कुछ दिन पहले एक प्रदर्शन के दौरान अपने कुछ
पुराने दोस्तों से मुलाकात हो गई। तब हम सभी दोस्त नोएडा सेक्टर 16 मेट्रो स्टेशन
के पास चाय पीने के लिए जगह ढूंढ रहे थे। तभी हमारा एक दोस्त मेट्रो स्टेशन पर लगे
स्टॉल से पानी की बोतल लेने गया। पानी की बोतल की कीमत 18 रुपये थी, लेकिन दुकानदार कह रहा था कि यह बोतल 20 रुपये की है। हमारे दोस्त के
ज्यादा बहस करने के बाद दुकानदार कहने लगा कि भईया आप तीन रुपये खुले दे दो। वरना
पानी की बोतल 20 रुपये की ही है। तब हमारे मित्र ने वापस आकर खुले तीन रुपये मांगे
और जाकर दुकानदार को देकर आया। कुछ दिन बाद ही एक मेट्रो स्टेशन पर मजदूर टिकट ले रहा था। उसका टिकट 21
रुपये का था। मेट्रो कर्मचारी ने मजदूर से एक रुपया खुला मांगा, लेकिन मजदूर के पास दो रुपये का सिक्का था। मजदूर ने दो रुपये का सिक्का मेट्रो कर्मचारी दे दिया,
मेट्रो कर्मचारी ने एक रुपये का सिक्का वापस देने के बजाए कह दिया
कि हिसाब हो गया।
दरअसल बात यह है कि आज एक या दो रुपये वापस न
करना एक चलन सा बन गया है। वहीं हमारे समाज में अगर कोई व्यक्ति बचा हुआ एक रुपया
या दो रुपया मांगता है, तो लोग उसे अचरज से देखने लगते है कि वह भला एक या
दो रुपये का क्या करेगा। खैर अब बचा हुआ एक रुपया मांगने का झमेला ही खत्म करने का
और मुनाफा कमाने का नया रास्ता एक टेलीकॉम कंपनी ने निकाला है। यह बात उस कंपनी के
विज्ञापन से समझी जा सकती है। यह विज्ञापन आजकल टीवी चैनलों पर काफी छाया हुआ है‘कि
एक रुपये के बदले में वीडियो देखे, सिर्फ एक रुपये का ही है’। इस
विज्ञापन के जरिए कंपनी अपनी एक सेवा का प्रचार कर रही है और एक रुपये की कीमत को
भी बखूबी बता रही है। लेकिन यहां एक अहम बात यह है कि एक रुपये की कीमत सिर्फ और
सिर्फ वीडियो को देखने के लिए है। वीडियो देखने अलावा एक रुपये से आप और कुछ नहीं
कर सकते है।
कुछ समय पहले पच्चीस पैसे, फिर पचास की कीमत खत्म कर दी गई। आज लोग आधुनिक परिवेश में एक या दो रुपये
की कीमत कम आंकने लगे है। भला एक या दो रुपये वैसे भी है ही क्या। आजकल बस में,
मेट्रो स्टेशन पर या डाकघर में जाइए या फिर कहीं भी, वहां पर भी आपको एक ही जवाब मिलेगा कि एक या दो रुपये खुले नहीं है या फिर
खुले पैसे दो। अगर खुले पैसे है तो ठीक वरना एक या दो रुपये छोड़ दो। अब लोगों को
अपनी जेबों में कम से कम 25 से 50 रुपये खुले लेकर चलना चाहिए। वरना शाम 10-20
रुपये तो ऐसे ही ठग लिये जाएंगे। ऐसे में अमीर आदमी के लिए एक या दो रुपये कोई
मायने नहीं रखते हो, लेकिन किसी गरीब के लिए एक या दो रुपये
मायने रखता है। जब कोई अमीर आदमी किसी सेवा को लेने के बाद कहता है कि एक या दो
रुपये खुले नहीं है, तो कोई बात नहीं है। वहीं से यह सारी
कहानी शुरू होती है। अब जब कोई गरीब उस सेवा का इस्तेमाल करता है, तब वह विक्रेता या दुकानदार उसे भी कहेगा कि एक या दो रुपये खुले नहीं।
अगर कोई डाकघर की सेवा ले रहा है, तो बचे हुए एक या दो रुपये
मांगने पर डाक टिकट थामा दिया जाता है।
सूचना क्रांति के दौर में एक रुपये को चुकाने के
बदले में नया तरीका वीडियो को दिखाने का इजाद किया गया है। इस वीडियो से भी
उपभोक्ता बेचारा पहले की तरह ही ठगा जाएगा, लेकिन उसे ठगे जाने
का एहसास नहीं होने दिया जाएगा। अब अगर कोई उपभोक्ता एक रुपया मांगेगा, तो लोग उसे फट से वीडियो दिखाने लगेंगे। सवाल यह है कि वह उपभोक्ता वीडियो
क्यों देखे। दूसरी बात यह है कि अब बाजार या कंपनियां तय कर रही है कि हम कैसे
रुपया खर्च करेंगे।
इस एक रुपये की गतिविधि को हम भले ही छोटी या
कमतर आंके, लेकिन हकीकत यही है कि इस एक रुपये से ही ठगी का
खेल शुरू होता है। पहले एक रुपये, अब दो रुपये, इसके बाद होगा कि पांच रुपये नहीं है। हमारे लिए उस एक रुपये का मतलब न हो, लेकिन यह सोचने वाली बात है कि कैसे
एक व्यक्ति से एक, दो रुपये आसानी से खुलेआम लूटे जा रहे है। सबसे
मजेदार बात तो यह है कि इस लूट की कोई शिकायत या गुस्सा भी लोग नहीं करते है। अगर
यह सोचा जाए कि वह व्यक्ति अगर एक–एक रुपया करके शाम तक 100
लोगों को भी एक रुपया वापस नहीं लौटता है, तो शाम तक 100
रुपये हो गए और एक महीने में तीन हजार रुपये हो जाएंगे।
जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक ने बताया
कि सरकारी रुपया कैसे भ्रष्टाचार के कारण नीचे तक पहुंचते-पहुंचते दस-पन्द्रह पैसे
रह जाता है। लेकिन हम लोग अभी तक रुपये की कीमत को नहीं समझे है। वहीं योजना आयोग
ने गरीबी के नए आंकड़े जारी किए है जिसमें गांवों में 27 और शहरों में 33 रुपये
से कम कमाने वालों को गरीबों की श्रेणी में रखा है। दो सालों में सरकार ने गांवों
और शहरों के लोगों की आमदनी में सिर्फ 1 रुपये की बढ़ोत्तरी की है। अब तो लोगों को
यह समझ लेना चाहिए कि एक रुपया कितना कीमती है।
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