रविवार, 16 मार्च 2014

पत्रकारिता का प्रशिक्षण ही बन गया है पत्रकारिता

                                                         – संजय कुमार बलौदिया

पिछले एक दशक में पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों का तेजी से विस्तार हुआ है। पत्रकारिता के क्षेत्र को जिस तरह ग्लैमर्स की दुनिया बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इससे छात्र-छात्राओं का पत्रकारिता की ओर रुझान तेजी से बढ़ा है। इसी वजह से आज कई तरह के मीडिया संस्थान सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री कोर्स चल रहे है। ये संस्थान एंकर, रिपोर्टर और कैमरामैन बनाने के लिए सर्टिफिकेट और डिप्लोमा भी बांट रहे हैं। पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और बदलती तकनीक के कारण ही इस क्षेत्र में प्रशिक्षण को जरूरी समझा गया। प्रशिक्षण का सामान्य अर्थ है कि किसी भी काम को और बेहतर तरीके से करना है। पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षण शब्द को सिर्फ तकनीक अर्थों तक ही समेट दिया गया है। इस वजह से ऐसा लगता है कि जैसे पत्रकारिता का प्रशिक्षण ही पत्रकारिता है। 

अभी हाल ही में विश्व पुस्तक मेले के दौरान पत्रकारिता के कुछ छात्र-छात्राओं और अध्यापकों को देखा जो मीडिया लेखन, समाचार लेखन, रेडियो लेखन जैसी किताबें खोज रहे थे। उन्हें काफी समझाने की कोशिश की इस प्रकार की किताबों से पहले पत्रकारिता को लेकर एक समझ बनाने की जरूरत है। लेकिन शायद वह समझना ही नहीं चाहते थे और वह इन किताबों को खोजते हुए आगे बढ़ गए। 

दरअसल बात यह है कि बीते एक दशक में जिस तरह से पत्रकारिता के क्षेत्र को प्रचारित किया गया है। उससे अब छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता का प्रशिक्षण/पाठ्यक्रम ही पत्रकारिता लगने लगा है और वह पाठ्यक्रम की किताबें पढ़कर ही पत्रकारिता कर लेना चाहते है। ये छात्र-छात्राएं खबरों को जानना-पहचानना और खोज नहीं चाहते हैं। इनके अध्यापक भी सिर्फ छात्र-छात्राओं को इतना ही तो सिखाना चाहते है कि समाचार कैसे लिखे, रेडियो के लिए कैसे लिखे, पैकेज कैसे काटें, एकरिंग कैसे करें या फिर रिपोर्टिंग संबंधी कुछ जानकारी भी दे देते हैं। इससे ज्यादा हुआ तो टाइपिंग और पेज डिजाइनिंग सीखा दी जाती है। इसके बाद वह एक पत्रकार बन जाता है और किसी मीडिया संस्थान में 5 डब्ल्यू 1 एच का प्रयोग करते हुए खबरें लिखता रहता है या पैकेज काटता रहता है। वह इस फार्मूले से आगे बढ़कर खबर की पहचान नहीं कर पाता है और ना ही किसी प्रकार का प्रयोग कर पाता है।  

पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षित पत्रकार को तकनीकी प्रशिक्षण तो मिल जाता है, लेकिन इस पेशे के लिए जो  सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समझ बननी चाहिए, वह नहीं बन पाती है। जिससे आज के पत्रकार सामाजिक सरोकारों से दूर होते नजर आते हैं। तकनीक प्रशिक्षण के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन इसके दूसरे पक्ष को अनदेखा करना भी सही नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह पत्रकारिता के सभी संस्थानों का एक जैसा पाठ्यक्रम/प्रशिक्षण है और बाजार का दबाव भी है। जिस वजह से आज इस तरह के पत्रकार तैयार किये जा रहे हैं। पत्रकारिता को चाहकर भी पाठ्यक्रम के दायरे नहीं समेटा जा सकता। लेकिन अब स्थिति ऐसी हो गई कि पत्रकारिता के प्रशिक्षण/पाठ्यक्रम को ही पत्रकारिता समझा जाने लगा है। इससे कहीं न कहीं पत्रकारिता लेखन सिमटता नजर आ रहा है। पत्रकारिता जैसे क्षेत्र के लिए यह स्थिति बहुत खतरनाक है। यह स्थिति आगे आने वाली पत्रकार पीढ़ी के लिए बेहद खतरनाक होगी। 










2 टिप्‍पणियां:

  1. एक प्रशिक्षित पत्रकार आम पत्रकार से बेहतर हो सकता है . आपका ये कहना बिलकुल गलत है की प्रसिक्षित पत्रकारिता भविष्य के लिए घातक साबित होगी .
    आपके बातों से ज़ाहिर होता है की आप पत्रकारिता में भाई भतीजावाद के कितने हिमायती हैं .
    क्यों नहीं कभी पत्रकारिता में भर्ती के लिए राष्ट्रीय साक्षात्कार ले लेते हैं उसमे से कितने अछे प्रशिक्षित पत्रकार निकल के आयेंगे ... पर ऐसा क्यों करेंगे आप पत्रकार गन ? आपलोग तो भाई भतीजावाद के हिमायती हैं आप उन्ही को नौकरी पे रखियेगा जो जानने वाले होते है . आपलोग को डर है की अगर अछे पढ़े लिखे और प्रशिक्षित पत्रकार आ गए तो उन झोला छाप पत्रकारों का क्या होगा जो भाई भतीजावाद के सहारे मीडिया में गए हैं इसी दर के व़जेह से आपलोग डरते हैं प्रशिक्षित पत्रकार से.

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  2. @ Munzir Ahmad ji, आपने शायद मेरे लेख को सही से नहीं पढ़ा, मैं पत्रकारिता के प्रशिक्षण के खिलाफ नहीं हूं। दरअसल में पत्रकारिता के प्रशिक्षण के नाम पर महज तकनीकी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मैं इसके खिलाफ हूं। मैं भाई-भतीजावाद का हिमायती भी नहीं हूं। क्योंकि मैंने खुद देखा है कि एक उदाहरण के तौर पर कैसे-कैसे लोग मीडिया में नौकरी कर रहे है। जिन्हें सही से स्वतंत्रता लिखना भी नहीं आता है।
    आज के कितने ऐसे प्रशिक्षित पत्रकारों को आप जानते है, जो देश की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समझ रखते है। मेरे लेख में सवाल ही यह है कि इतने सारे प्रशिक्षण संस्थानों के बावजूद पत्रकार कहां है। मेरे सिर्फ दो-तीन साल का अनुभव है। मेरे जानने वाले सभी मित्र कहीं न कहीं बड़े संस्थानों में नौकरी कर रहे है। लेकिन उनमें से मात्र 3 से 4 लोगों का ही लेखन मुझे किसी पत्रिका या समाचार पत्र में देखने को मिलता है। यह कहा जा सकता है कि बाकी तो बस नौकरी (उस संस्थान ढांचा भी उसी तरह का है, कि वह बस आठ घंटे या जितने भी घंटे काम करे और उसके बाद चला जाए, उसे पत्रकारिता का कोई माहौल नहीं मिल पाता है) कर रहे है।
    अंत मैं एक बार फिर यहीं कहना चाहता हूं कि लेख को एक बार फिर से पढ़े तो बेहतर और आपके के सवाल का जवाब भी मिल जाएगा।

    राय से अवगत करने के लिए शुक्रिया
    संजय कुमार बलौदिया

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