पहले सर्व शिक्षा अभियान और उसके बाद शिक्षा का अधिकार कानून
भी लागू किया गया, लेकिन उसके बाद भी 60 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से दूर है। साथ
ही वंचित तबके के लिए आरक्षित सीटें भी नहीं भरी जा रही हैं। इस स्थिति में हम
कैसे हर बच्चे को बुनियादी शिक्षा दे पाएंगे।
शिक्षा का अधिकार कानून को लागू हुए पांच साल हो चुके हैं।
शिक्षा का अधिकार कानून की धारा 12(1) (स)
में
आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्ग के
बच्चों के लिए स्कूलों (गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों को छोड़कर) में 25
फीसदी सीट आरक्षित करने की बात कही गई है। इस संबंध में अप्रैल 2012 में सुप्रीम
कोर्ट का भी फैसला आया था। लेकिन आज भी इस प्रावधान का लाभ कमजोर वर्ग और
सुविधाहीन बच्चों को नहीं मिल पा रहा है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च और विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के उपक्रम सेंट्रल स्क्वेयर फाउंडेशन और
आईआईएम अहमदाबाद की रिपोर्ट के मुताबिक देशभर
में 21 लाख सीटों में से सिर्फ 29 फीसदी सीटें ही भरी गई है। दिल्ली में 92 फीसदी, मध्यप्रदेश
में 88 फीसदी, राजस्थान में 69 फीसदी सीटों पर आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबके
के बच्चों को दाखिला दिया गया। इन राज्यों में अन्य राज्यों के मुकाबले स्थिति
बेहतर रही। जबकि 25 फीसदी आरक्षित सीटों में आंध्रप्रदेश में 0.2 फीसदी, उड़ीसा
में 1.85 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 3.62 फीसदी सीटों को ही भरा गया। इन आंकड़ों
के आधार पर कहा जा सकता है कि भले ही कुछ राज्यों में आरक्षित सीटों पर बच्चों को
दाखिला दिया जा रहा हो, लेकिन अभी भी आरक्षित सीटों पर वंचित तबके के बच्चों के
दाखिले की स्थिति को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।
आज भी कई निजी स्कूल गरीब बच्चों को अपने यहां दाखिला देने से
बचने के लिए कई तरह के बहाने बनाते हैं और अभिभावकों पर फीस या डोनेशन के लिए दबाव
बनाते हैं। तो कई अभिभावकों के बच्चों को जाति या आय प्रमाणपत्र न होने के कारण भी
दाखिला नहीं मिल पाता है। एक ऐसा वर्ग जिसकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति ठीक है, वह भी
आरक्षित सीटों पर अपने बच्चों के दाखिले के लिए जाति या आय प्रमाणपत्र जुटाते दिखते
हैं। सही
मायने में अभी भी इस प्रावधान का लाभ कमजोर वर्ग व सुविधाहीन बच्चों को पूर्ण रूप
से नहीं मिल पा रहा है। इसकी एक वजह यह है कि वंचित तबके में इस प्रावधान को लेकर
जागरूकता का अभाव है। सरकार द्वारा इस्तेमाल में लाए जा रहे प्रसार माध्यम पहुंच
की दृष्टि से आसानी से उपलब्ध नहीं है।
पिछले
एक दशक में निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई
है। सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन में गिरावट देखी जा रही है। बच्चों के
नामांकन में गिरावट को आधार बनाकर सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है। इस बात
को नेशनल कोइलिएशन फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। इस रिपोर्ट के
मुताबिक देश के विभिन्न राज्यों में वर्तमान में चलने वाले सरकारी स्कूलों को बंद
किया जा रहा है। राजस्थान में 17,129, गुजरात
में 13,450,
महाराष्ट में 13,905, कर्नाटक में 12,000, आंध्र प्रदेश में 5,503 स्कूल बंद कर दिए गए। यहां सवाल
उठता है कि सरकारी स्कूल भी बंद कर दिए जाएंगे और निजी स्कूलों में प्रावधान के
तहत बच्चों को दाखिल भी नहीं मिलेगा। तब उस कमजोर और सुविधाहीन बड़े तबके का क्या
होगा, जो अंत में जाकर सरकारी स्कूलों में ही प्रवेश लेता है।
आरटीई
में 12 (1) (स) में प्रावधान है कि बच्चों को दाखिले के साथ यूनिफार्म, पुस्तकें
जैसी अन्य सुविधाएं भी मिलनी चाहिए। इस प्रावधान के तहत ऐसा माहौल तैयार किय़ा जाना
चाहिए कि सुविधाहीन और कमजोर वर्ग के बच्चे उन स्कूलों में अन्य बच्चों के साथ
सामंजस्य बना सकें। अगर बच्चों के बीच सामंजस्य नहीं बनेगा तो उनमें आत्मविश्वास
की कमी होगी और वह हीन भावना का शिकार होंगे। कई निजी स्कूलों ने अपने यहां इस
प्रावधान के तहत आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों को दाखिल तो दे दिया
गया, लेकिन उन बच्चों का समावेशन नहीं किया गया। अगर समावेशन पर जोर नहीं दिया गया
तो एक बड़ा तबका शिक्षा से दूर हो जाएगा और उसका विकास नहीं हो पायेगा। साथ ही
समाज के वर्गों में भेदभाव भी कम नहीं होगा।
इस
बात का भी ध्यान रखना होगा कि इस प्रावधान का लाभ बच्चों को दिलाने के बहाने सरकार
कहीं सरकारी स्कूलों को बंद करने की कोशिश तो नहीं कर रही है। अगर सरकारी स्कूलों
को बंद कर दिया गया तो वंचित समुदाय से शिक्षा का विकल्प दूर हो जाएगा। वैसे भी
पिछले एक दशक में शिक्षा के निजीकरण को तेजी बढ़ावा दिया गया है।
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